श्रीमद भगवद गीता : २४

विवेकहीन मनुष्य अव्यक्त, अविनाशी परमात्मतत्व को शरीर धारण करनेवाला मानता हैं।

 

अव्यक्तं व्यक्ितमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः।

परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम्।।७-२४।।

 

 

विवेकहीन मनुष्य मेरे सर्वश्रेष्ठ अविनाशी परमभावको न जानते हुए अव्यक्त (मन-इन्द्रियोंसे पर) मुझ सच्चिदानन्दघन परमात्माको मनुष्यकी तरह ही शरीर धारण करनेवाला मानते हैं। ।।७-२४।।

भावार्थ:

अनित्य दृश्यमान जगत् में अत्यन्त आसक्ति के कारण बुद्धि रहित विवेकहीन मनुष्य यह नहीं जान पाता कि यह सम्पूर्ण दृश्यमान जगत् का मूल तत्व परमात्मतत्व ही है। जगत में जो भी दृश्यमान हो रहा है उसका कुछ न कुछ गुण है जिससे वह जानने में आता है। अध्याय ७ श्लोक ७ से श्लोक १२ तक में वह गुण और उसका कारण  परमात्मतत्व है, इसका वर्णन किया है।

जिस चैतन्य के प्रकाश में सम्पूर्ण विश्व प्रकाशित हो रहा है उस परमात्मतत्व को शब्दों में व्यक्त किया नहीं जा सकता। इसलिये यहाँ अव्यक्त शब्द आया है। परमात्मतत्व क्या है इसका वर्णन अध्याय २ श्लोक १७ से श्लोक २४ में हुआ है।

संसार-शरीर में आसक्ति के कारण विवेकहीन मनुष्य कामना और भोग में रत सभी कार्यों का कर्त्ता स्वयं को मानता है। यह भी सत्य है कि वह स्वयं से अधिक शक्तिशाली किसी परम् शक्ति को भी मानता है।

मनुष्य जब प्रतिकूल परिस्थिति में होता है, संकट में पड़ जाता है, तब वह परम् शक्ति के शरण होता है और उपासना करता है। इस प्रकार के मनुष्यों को अध्याय ७ श्लोक १६ में ‘आर्त’ पद दिया है। उसी प्रकार मनुष्य को जब कामना होती है और उसकी पूर्ति के लिये स्वयं की यथा शक्ति अपर्याप्त दिखती है तब वह परम् शक्ति के शरण होता है और उपासना करता है। इस प्रकार के मनुष्यों को ‘अर्थार्थी’ कहा गया है।

बुद्धिरहित विवेकहीन मनुष्य उस परम् शक्ति को मनुष्य के समान शरीर वाला मानता है और उससे उसी प्रकार राग-द्वेष करता है जिस प्रकार वह अन्य मनुष्यों से करता है।

इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण स्पष्टता से कहते है की परमात्मतत्व अव्यक्त, निर्विकार, निराकार और अविनाशी स्वरूप है। सृष्टि के अस्तित्व और उसमें हो रही क्रियाओं का कारण है।

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