श्रीमद भगवद गीता : २५

योगमाया से मोहित मूढ़ मनुष्य परमात्मतत्व को नहीं जान पाता।

 

नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः।

मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम्।।७-२५।।

 

जो मूढ़ मनुष्य मेरेको अज और अविनाशी ठीक तरहसे नहीं जानते (मानते), उन सबके सामने योगमाया से अच्छी तरहसे आवृत हुआ मैं प्रकट नहीं होता। ।।७-२५।।

 

भावार्थ:

प्रकृति में जितने भी प्राणी एवं पदार्थ है, उन सभी में क्रिया हो रही है, या उनके द्वारा कार्य हो रहे है। इन क्रिया अथवा कार्य के होने का कारण प्राणी-पदार्थ के अपने गुण है। इन गुणों के कारण ही समस्त सृष्टि में अनेक प्रकार की क्रिया स्वतः ही हो रही है।

अन्य प्राणियों के समान मनुष्य शरीर (इन्द्रियां, मन और बुद्धि) के द्वारा भी अनेक प्रकार की क्रिया स्वतः ही हो रही है, जिनका कारण मनुष्य के गुण है। मनुष्य द्वारा कोने वाले कार्यों का कारण है, त्रिगुण, संस्कार, संस्कार में स्थित राग-द्वेष, परिकल्पना आदि। त्रिगुण, संस्कार, आदि को ही भगवान श्रीकृष्ण योग माया अथवा दैवी माया कहते है, जिसके प्रभाव में मोहित हुआ मनुष्य सत्य को नहीं जान पता। वह इस सत्य को नहीं जान पाता कि प्रकृति और स्वयं उसके माने हुए शरीर  का कारण परमात्मतत्व है। मनुष्य शरीर से होने वाले कार्यों का कारण परमात्मतत्व से प्राप्त त्रिगुण, संस्कार, परिकल्पना है।

मनुष्य की मूढ़ता का कारण क्या है, इसका विस्तार से वर्णन अध्याय ३ श्लोक २७ में हुआ है।

इस मूढ़ता के कारण मनुष्य परमात्मतत्व को जान नहीं पता और उसके अज, अविनाशी गुण को नहीं जान पाता। योग माया से मूढ़ता को प्राप्त और परमात्मतत्व को नहीं जान पाने के कारण मनुष्य भोग-कामना में ही रचा-पचा रहता है।

साथ ही मनुष्य यह तो मान लेता है कि प्रकृति में होने वाली क्रियाओं का कारण कोई शक्ति है। परन्तु उसके स्वयं के द्वारा होने वाले कार्यों का कारण वह स्वयं को मानता है। जिस प्रकार वह स्वयं को अनेक प्रकार के कार्यों का कर्त्ता मानता है, उसी प्रकार वह प्रकृति में होने वाले कार्यों का कर्त्ता सकार रूप (शरीर धारण करने वाला) भगवान को मानता है।

भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि जो मनुष्य योग साधना नहीं करता, वह मूढ़ मनुष्य सत्य को जान ही नहीं सकता, अनुभव नहीं कर सकता। अतः सत्य को जानने के लिये योग साधना अनिवार्य है।

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