श्रीमद भगवद गीता : २८

येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम्।

ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रताः।।७-२८।।

 

परन्तु जिन पुण्यकर्मा मनुष्यों के पाप नष्ट गये हैं, वे द्वन्द्वमोहसे रहित हुए मनुष्य दृढ़व्रती होकर मेरा भजन करते हैं। ।।७-२८।।

 

भावार्थ:

दृढ़ निश्चय से, जिसने पूर्व श्लोक में वर्णित राग-द्वेष रूपी द्वन्द्व का त्याग कर दिया है। जिस साधक के समस्त कार्य केवल प्रकृति-समाज कल्याण के लिये होते है, वह पुण्यकर्मा है। जो साधक प्राप्त प्रकृति पदार्थों को निर्वाह मात्र के लिये ही उपयोग करता है और अन्य को प्रकृति-समाज कल्याण के लिये अर्पण करता है और जिसमें अहंता का त्याग हो गया है उसके सभी पाप नष्ट हो जाते है।

इस प्रकार का कार्य (भजन) करने से साधक को परमात्मतत्व की अनुभूति होती है।

‘पाप’ पद पाप और पुण्य दोनों का वाचक है।

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