श्रीमद भगवद गीता : ०३

भगवान श्रीकृष्ण द्वारा दुर्लभ विज्ञान का सरलता से वर्णन।

 

मनुष्याणां सहस्रेषु कश्िचद्यतति सिद्धये।

यततामपि सिद्धानां कश्िचन्मां वेत्ति तत्त्वतः।।७-३।।

 

सहस्रों मनुष्यों में कोई एक वास्तविक सिद्धिके लिये प्रयत्न करता है और उन प्रयत्नशील साधकों में भी कोई एक ही मुझे तत्त्वसे जानता है। ।।७-३।।

भावार्थ:

इस श्लोक का यह अर्थ नहीं है कि योग साधना करना अत्यन्त कठिन है या इस विज्ञान को प्राप्त करना किसी विरले साधक का विषय है। अपितु इस श्लोक का अभिप्राय है जिस विज्ञान का वर्णन भगवान श्रीकृष्ण आगे के श्लोकों में करेंगे उसको प्राप्त करना अति दुर्लभ है। कारण की इसको बताने वाला बहुत कम लोग है। और भगवान श्रीकृष्ण स्वयं इस दुर्लभ ज्ञान को सरलता से अर्जुन को दे रहे है।

आज के समय में यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा की अधिकांश मनुष्य पशुओं के समान जीवन व्यतीत करते है। खाना-पीना और ऐश-आराम करना अपने जीवन का उदेश्य मानते है। मनुष्यों में स्पर्धा इस बात की रहती है कि, किस के पास भोग की अधिक से अधिक सामग्री है।

अतः सहस्रों मनुष्यों में से कोई एक योग के लिये साधना करता है। और जो करते है उनको परमात्मतत्व के विज्ञान की प्राप्ति नहीं होती। जिसको भगवान श्रीकृष्ण आगे के श्लोकों में सरलता से वर्णन करने का वचन देते है।

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