श्रीमद भगवद गीता : ३०

साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदुः।

प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतसः।।७-३०।।

 

जो मनुष्य अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञके सहित मुझे जानते हैं, वे निरुद्धचित्त योगी अन्तकालमें भी मुझे ही जानते हैं अर्थात् प्राप्त होते हैं। ।।७-३०।।

 

भावार्थ:

जो साधक पूर्व श्लोक में वर्णित जो भजन रूपी कार्य करता है और योग आरूढ़ होता है उसको अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ के ज्ञान के साथ परमात्मतत्व का अनुभव होता है। और ऐसा होने पर साधक अन्त काल में भी भय को प्राप्त नहीं होता।

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