भावार्थ:
दृश्य रूप प्रकृति और द्रष्टा की रचना पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार- इन आठ प्रकार के मूल भूतों में विभक्ति की गयी है। और इन आठ भूतों को मिला कर ‘अपरा प्रकृति’ नाम कहा गया है। मन, बुद्धि और अहंकार को मिला कर अन्तःकरण कहा गया है।
प्रकृति में जितने भी स्थूल प्रदार्थ है और जीवों के स्थूल शरीर की रचना पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, इन पाँचमहा भूत से हुई है। चेतन जिव में चेतना का कारण मन, बुद्धि और अहंकार है।
मनुष्य को बाह्य जगत् का अनुभव ज्ञानेन्द्रियाँ, मन, और बुद्धि से होता है। शरीर की कर्मेन्द्रियाँ में जो क्रिया हो रही है उन का भी कारण मन, और बुद्धि है। इन सब हो रही क्रिया का जो द्रष्टा है वह अहंकार है।
जन्म के समय पर अंकित संस्कार से बाह्य जगत् के पदार्थों के प्रति भाव उत्त्पन्न होते है और उनके अनुरूप क्रिया होती।
पदार्थों के प्रति उत्त्पन्न भाव, उसके अनुरूप क्रिया- क्रिया के अनुरूप फल और फल के प्रति पुनः उत्त्पन्न भाव संस्कार रूप में पुनः अंकित हो जाते है। यह संस्कार अहंकार में अंकित रहते है।
शरीर से होने वाली क्रिया का द्रष्टा अहंकार है। बाह्य जगत् में हो रही क्रिया का दृश्य भी वह शरीर के ज्ञानेन्द्रियाँ, मन, और बुद्धि से देखता है इसलिये वह स्वयं को शरीर मान लेता है। और यह एक प्रकार से सत्य भी है। कारण की द्रष्टा रूप से जितने भी अनुभव होते है वह शरीर से होते है और अनुभव के अनुरूप जो क्रिया होती है वह भी शरीर से ही होती है।
मन में उत्त्पन्न विषमता और विकार रूपी भाव भी अहंकार स्वयं में मानता है जो की दुःख का कारण है। और यह भी सत्य है की बुद्धि दुवारा मन में उत्त्पन्न भाव और भाव के प्रभाव में होने वाली क्रियाओं को नियमित किया जा सकता है।
धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]
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