श्रीमद भगवद गीता : ०६

सम्पूर्ण प्राणी की उत्त्पति और नाश, अपरा और परा के संयोग से होती है।

 

 

एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय।

अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा।।७-६।।

 

अपरा और परा, इन दोनों प्रकृतियों के संयोग से ही सम्पूर्ण प्राणी उत्पन्न होते हैं, ऐसा तुम समझो। मैं सम्पूर्ण जगत् का प्रभव तथा प्रलय हूँ। ।।७-६।।

भावार्थ:

अपरा प्रकृति में हो रही क्रिया और परा प्रकृति से प्राप्त ऊर्जा स्रोत से ही सम्पूर्ण प्राणी उत्पन्न होते हैं। अतः समस्त प्राणीओं के प्रभव तथा प्रलय का कारण परा प्रकृति (परमात्मतत्व) ही है।

जितने भी मनुष्य, पशु, पक्षी आदि जङ्गम और वृक्ष, लता, घास आदि स्थावर प्राणी हैं वे सब-के-सब अपरा और परा प्रकृतिके सम्बन्धसे ही उत्पन्न होते हैं।

मनुष्य, पशु, पक्षी आदि जङ्गम प्राणी में प्रभव स्त्री-पुरुष के सम्भोग करने पर रज-वीर्य के संयोग से होता है। जङ्गम प्राणी में यह काम वासना प्रकृति से प्राप्त है, और यह क्रिया स्वतः ही होती है।

यहा अहं (मैं) पद का सन्दर्भ परमात्मतत्व से है ना कि भगवान कृष्ण रूप से।

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