श्रीमद भगवद गीता : ०७

परमात्मतत्व से अन्यथा दूसरा कोई सृष्टि के अस्तित्व का कारण नहीं है।

 

मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय।

मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव।।७-७।।

 

हे धनञ्जय! मेरे से अन्यथा दूसरा कोई किञ्चिन्मात्र भी कारण नहीं है। यह सम्पूर्ण जगत् मेरे में ही ओत-प्रोत है, जिस प्रकार दीर्घ तन्तुओंमें वस्त्रकी भाँति तथा सूत्रमें मणियोंकी भाँति पिरोया हुआ होता है। ।।७-७।।

 

भावार्थ:

भगवान श्री कृष्ण विश्वास देते है की प्रभव तथा प्रलय का मूल कारण केवल परमात्मतत्व ही है, अन्य कोई दूसरा किञ्चिन्मात्र भी कारण नहीं है।अर्थात् मूल कारण का कोई उत्पादक नहीं है।

यह ऊर्जा स्रोत, शक्ति रूपी परमात्मतत्व समस्त प्रकृति में समान रूप से व्याप्त है परन्तु दिखती नहीं। इस संसार अर्थात् देश, काल, व्यक्ति, वस्तु, घटना, परिस्थिति आदि, सभी की सत्ता दिखती है। परन्तु इन सभी परिवर्तनशील हैं तथा जिसकी सत्तासे ये सभी ‘है’ दीखते हैं, वह परमात्मा ही इन सबमें परिपूर्ण हैं। परन्तु जिसके होने पन से इन सब का होनापन दीखता है अर्थात् जिसकी सत्ता से ये सभी दीखते हैं, वह परमात्मतत्व ही इन सबमें परिपूर्ण हैं।

जिस प्रकार एक ही सूत्र सभी मणियों को पिरोये रहता है परन्तु वह सूत्र हमें दृष्टिगोचर नहीं होता, उसी प्रकार परमात्मतत्व सभी प्राणीओं में व्याप्त होता है। इसका दूसरा दृष्टान्त वस्त्र से लिया है जिसमें सूत तो दीखता है परन्तु सूत का दीर्घ तन्तु नहीं दीखता। ऐसे ही संसार में जितने प्राणी हैं, वे सभी नाम, रूप, आकृति आदिसे अलग-अलग दीखते हैं, पर वास्तवमें उनमें व्याप्त रहनेवाला परमात्मतत्व एक ही है।

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