श्रीमद भगवद गीता : १२

सामान्य मनुष्य कामना वश देवता की उपासना किया करते हैं।

 

काङ्क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः।

क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा ।।४-१२।।

 

सामान्य मनुष्य इस लोक में कर्मों की सिद्धि (कामना) चाहने वाले देवताओं की उपासना किया करते हैं; क्योंकि कर्मों से उत्पन्न होने वाली सिद्धि शीघ्र ही प्राप्त होते हैं। ||४-१२||

भावार्थ:

अध्याय ३ श्लोक ११ में देवी और देवता लोग कौन है, इसका वर्णन किया है। यह श्लोक उन लोगो के लिये है जो भोग को ही अपना जीवन का उद्देश्य मानते है।

हमारे सत-शास्त्रः सृष्टि के समस्त प्राणी, प्रदार्थ को देव-देवी (दिव्यरूप) रूप में ही देख्ते है। जल, वायु, पृथ्वी, ग्रह, व्रक्ष (नीम, पीपल, आम, तुलसी आदि) पशु, पक्षी, नदिया आदि सभी प्राणी, एवं प्रदार्थ दिव्यरूप में देखे और पूजे जाते है। कारण, ये सभी सृष्टि चक्र को बनाय रखने में अपना-अपना योगदान करते हैं और ये मनुष्य के द्वारा सेवा करने पर यथोचित फल देते है।

प्राकृतिक पदर्थों में जिनका आकर्षण है- ऐसे मनुष्य प्राकृतिक पदर्थों (जो देवता रूप भी है) की कामना कर उनकी प्राप्ति के लिये कार्य करते है। इस प्रकार कार्य करने से मनुष्य को पदार्थ रूपी फल शीघ्र ही प्राप्त हो जाता है।

अध्याय ३ श्लोक १० एवं अध्याय ३ श्लोक ११ में ब्रह्माजी कहते है की सृष्टि चक्र में मनुष्य जब अपनी कार्य रूपी (कर्तव्य के लिये) आहुति देगा, तो मनुष्य को कार्य को करने के लिये, फल रूप में सामग्री प्राप्त होती रहेगी। परन्तु मनुष्य अपने कर्तव्यों को तो भूल जाता है और अपनी कामना पूर्ति और भोग के लिये ही सब कार्य करता है। प्रकृति से जो साधन सामग्री प्राप्त होती है, उसका वह भोग करता है। पुनः ध्यान देने वाली बात है की कार्य करने से फल स्वरूप प्राप्त सामग्री समाज सेवा के लिये होती है, स्वयं के भोग के लिये नहीं।

स्वयं के लिये प्राप्त सामग्री का भोग करने वाले को अध्याय ३ श्लोक १२ में चोर कहा है और अध्याय ३ श्लोक १३ में, स्वयं की कामना पूर्ति के लिये कार्य कर भोग करने वाले को पाप कर्म और पाप का भक्षण करने वाला कहा है।

श्लोक के सन्दर्भ मे:

यहा देवता की उपासना से अर्थ है कि जिस प्राकृतिक पदार्थ को प्राप्त करना है, उस की प्राप्ति के लिये कार्य को करना। क्योकि प्रकृति में सभी पदार्थ देवता स्वरूप है, इसलिये उनकी प्राप्ति के लिये कार्य करना उपासना स्वरूप है।

कार्य का शीघ्रता से प्राप्त होता है, ऐसा कहने से विचार आता है की यह सत्य नहीं है। मनुष्य का अपने जीवन का अनुभव होता है, की उसको बहुत प्रयत्न करने पर भी फल की प्राप्ति नहीं होती। यहाँ जानने की बात यह है कि मनुष्य को कामना के अनुरूप फल की प्राप्ति नहीं होती, कार्य के अनुरूप निश्चित रूप से होती है। वह जो कार्य जिस क्षमता और योग्यता से करता है उसको उस कार्य का फल प्रकृति से निश्चित रूप से मिलता है, फिर चाहये वह फल कामना के अनुरूप न हो!

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