श्रीमद भगवद गीता : १७

कर्म, अकर्म और विकर्म का तत्त्व जानना चाहिये।

 

कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः।

अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः ।।४-१७।।

 

कर्म का तत्त्व भी जानना चाहिये और अकर्म का तत्त्व भी जानना चाहिये तथा विकर्मका तत्त्व भी जानना चाहिये; क्योंकि कर्म की गति गहन है। ||४-१७||

भावार्थ:

प्रकृति निरन्तर परिवर्तनशील है और कभी अक्रिय नहीं होती। क्योंकि मनुष्य शरीर प्रकृति का कार्य है तो मनुष्य शरीर में शारीरिक एवम मानसिक क्रियाएँ निरंतर होती रहती है ।

मनुष्य शरीर की समस्त क्रियाएँ स्वतः होती है जिस पर मनुष्य का कोई अधिकार नहीं होता। श्वास का चलना, ह्रदय का धड़कना, आखों का देखना, कानो का सुनना, भोजन का पचना इत्यादि। इन सब क्रियाओं को करने के लिये जो समिष्ट शक्ति चाहिये वह चेतनतत्व से प्राप्त होती है।

अतः जिस समिष्ट शक्ति से शरीर, वृक्ष आदि पैदा होते और बढ़ते-घटते हैं, गंगा आदि नदियाँ प्रवाहित होती हैं, मकान आदि पदार्थोंमें परिवर्तन होता है, उसी समिष्ट शक्तिसे मनुष्यकी देखना, सुनना, खाना-पीना आदि सब क्रियाएं होती हैं।

आश्चर्य की बात यह है कि आखों का देखना तो स्वतः हो रहा है परन्तु आखों के देखने की जो क्रिया है उसको मनुष्य अपनी क्रिया मानलेता है। कानो का सुनना स्वतः है परन्तु सुनने की क्रिया को अपनी मानलेता है।

बुद्धि का विचार करना, हाथ-पैर का चलना और शरीर के समस्त कार्य स्वतः ही होते है परन्तु मनुष्य इन सब के साथ अपना सम्बन्ध मान कर इन सब क्रियाओं को मेरे द्वारा होनी मान लेता है।

अगर मनुष्य ही इन सब कार्यों का करता होता तो नवज़ात शिशु के शरीर में जो क्रिया होती है उन सबका करता कौन यह विचार करने की बात है।

आँखे जो दृश्य देखती है उस दृश्य को देख कर मन में भाव (अच्छा-बुरा; सुखद-दुःखद) उत्पन्न होता है। भगवान श्रीकृष्ण अध्याय ३ श्लोक ३४ में बतया है कि इस भाव के उत्पत्ति का कारण प्रक्रतिके गुणों और संस्कार है।

कुछ संस्कार तो नवज़ात शिशु में जन्म के साथ ही माता के गर्भ से प्राप्त होते है और उसके बाद जैसे-जैसे नवज़ात शिशु की आयु बढ़ती है वह अपने माता-पिता, संबन्धी, गुरुजन, समाज, स्थान, समय और घटना से अपने संस्कार बनाता जाता है।

नवज़ात शिशु के कानों में जो ध्वनि आती है उसका ज्ञान तो उसको होता है पर उसका अर्थ का पाता नहीं होता। भाषा के रूप में ध्वनि का अर्थ और उसका भाव, शिशु को अपने माता-पिता, और संबन्धी से प्राप्त होता है, जो उसके बुद्धि में स्मृति के रूप में अंकित हो जाती है।

प्रकृति से उत्पन्न गुणों – (सत्व, रज और तम ) का कार्य होने से बुद्धि, मन, पंचमहाभूत, पांच इन्द्रियाँ, पांच कर्मेन्द्रियाँ, और इन्द्रियोंके शब्दादि पाँच विषय – ये भी प्रकृति के गुण कहे गये हैं। अतः सम्पूर्ण क्रियाएं मनुष्य के संस्कार और प्रकृतिके गुणों द्वारा ही की जाती हैं, स्वरूपके द्वारा नहीं।

पशु और पक्षी में अपने जीवन निर्वाह हेतु पर्याप्त बुद्धि और विवेक होता है। उनमें अपना कार्य करने के लिये हाथ-पैर या अन्य यंत्र होते है जिसका प्रयोग वह अपने जीवन व्यापन और अपने सुरक्षा के लिये करते है।

मनुष्य को बुद्धि, विवेक, स्मृति और कल्पना की शक्ति विशेष रूप से प्राप्त है| मनुष्य इस शक्ति के द्वारा प्रकृति, परमात्मतत्व, चेतनतत्व को जानने में सक्षम है और वह इस शक्ति के द्वारा अपना और समाज का कल्याण कर सकता है।

परमात्मतत्व से बुद्धि, विवेक, स्मृति और कल्पना की शक्ति, मनुष्य को शरीर और शरीर का भेद समझकर समाज का कल्याण करने के लिये मिली है। परन्तु विमूढ़ता वश इन शक्तिओं को पाकर, मनुष्य बुद्धि ‘सारे कार्य मेरे द्वारा ही होते है’ ऐसा मान लेता है।

मनुष्य की बुद्धि को “मैं हूँ” का जो अनुभव, ज्ञान होता है, वह चेतन तत्व से प्राप्त होता है। इस अनुभव, ज्ञान का प्रकाशक चेतन तत्व है जो बुद्धि से परे है। यह सत्य है कि ज्ञानेन्द्रियाँ, कर्मेन्द्रियाँ, मन और बुद्धि से होने वाले कार्यों का ज्ञान बुद्धि को होता है और बुद्धि ही ज्ञानेन्द्रियाँ, कर्मेन्द्रियाँ को कार्य करने का निर्देशन करती है। परन्तु कार्यों का ज्ञान और निर्देशन बुद्धि द्वारा तभी सम्भव है जब बुद्धि में चेतना का प्रकाशन चेतन तत्व से हो।

अतः बुद्धि को चेतना (“मैं हूँ”) का ज्ञान तो होता है, पर वह ज्ञान कहा से प्राप्त हो रहा है, इसका ज्ञान नहीं होता। क्योकि संसार के सभी विषयों का ज्ञान और निर्देशन बुद्धि द्वारा होता है, तो बुद्धि अज्ञानता वश चेतना की अनुभूति स्वयं की उत्त्पति मान लेता है।

विचार करने वाली बात यह है कि इन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों को संकेत तो तरंगो द्वारा बुद्धि से जाता है, जिससे वह कार्य करती है। परन्तु इन सब कार्य को करने की शक्ति तो उसी समिष्ट शक्ति से प्राप्त होती है जिससे यह सारा संसार क्रियाशील है, बुद्धि से नहीं। बुद्धि केवल कार्यों का निर्देशन करती है, स्वयं कार्य नहीं करती और न ही कार्य करने के लिये शक्ति प्रदान करती है।

पुनः अगर विचार कर भी ले कि, मनुष्य के सब कार्य उसकी चेतन अवस्था में, वह अपनी मानी हुए इन्द्रियाँ, कर्मेन्द्रियाँ और बुद्धि से करता है, तो शिशु अवस्था में शिशु के कार्य होने पर कर्त्ता कौन है?

मन में उत्पन्न भाव और कामनाएँ का ज्ञान मनुष्य के विवेक को होता है और मनुष्य के विवेक और बुद्धि में यह शक्ति है की वह इन भाव और कामनाएँ से प्रेरित हो या न हो और उनसे प्रेरित हो कर राग-द्वेष वश कार्य करे या न करे। परन्तु उस निर्देशन के बाद कार्य होने की प्रक्रिया तो मनुष्य शरीर में स्वतः ही हो रही है और जो प्रकृति का अंश है।

इसलिये भगवान श्री कृष्ण ने अध्याय २ श्लोक ३७ में ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते’ पद से केवल क्रिया करने या ना करने का निर्देशन अधिकार मनुष्य बुद्धि का है, ऐसा कहा है। परन्तु शरीर की सभी क्रियाएँ परमात्मा से प्राप्त समिष्ट शक्ति से ही होती है। बुद्धि को निर्देशन शक्ति भी परमात्मा से प्राप्त है।

अतः यह सिद्ध है की मनुष्य बुद्धि अज्ञानता, मूढ़ता वश शरीर से सम्बन्ध मान कर शरीर से होने वाले कार्यों को कर्त्ता मान लेता है।

कर्म:

मनुष्य बुद्धि अज्ञानता, मूढ़ता वश जब शरीर से सम्बन्ध मान कर शरीर में होने वाली शारीरिक एवं मानसिक क्रियाएँ का कर्त्ता स्वयं को मान लेता है, तब वह शारीरिक एवं मानसिक क्रियाएँ बंधन रूपी कर्म कहलाती है।

कामना पूर्ति के लिये किये गये कार्य कर्म है। कारण की उसमें कार्य की प्रवृति का कारण शरीर से सम्बन्ध है। उसी प्रकार शरीर से सम्बन्ध मान कर राग-द्वेष, आसक्ति, या आलस्य वश, जब मनुष्य परिस्थिति से प्राप्त कार्य का त्याग करता है, तब वह कार्य त्याग बंधन रूपी कर्म कहलाता है।

शरीर से सम्बन्ध मान कर कार्य करने से वह कार्य बांधने वाले क्यों हो जाते है, इसका विस्तर से वर्णन अध्याय १३ में हुआ है।

अकर्म:

विवेक की जाग्रति होने पर, मनुष्य जब शारीरिक एवं मानसिक क्रियाओं के साथ अपना सम्बन्ध न मानते हुए समाज कल्याण के लिये प्राप्त कर्तव्य कार्यों को करता है तब वह कार्य अकर्म कहलाती है। उसी प्रकार शरीर से सम्बन्ध मान कर राग-द्वेष, आसक्ति, आलस्य वश, या शरीर की क्षति के भय से परिस्थिति से प्राप्त कार्य का त्याग नहीं करता है, तब वह कार्य अकर्म कर्म कहलाता है।

जब कार्य सेवा हेतु अन्यों के लिये हो और उन कार्यों में कर्त्ता भाव न हो, तभी वह कार्य अकर्म है।

क्रिया का होना और क्रिया का न होना अकर्म नहीं है अपितु क्रिया के साथ सम्बन्ध का होना या न होना अकर्म है। अकर्म मनुष्य को संसार से मुक्त करता है अर्थात अकर्म संसार से स्वतंत्र करने वाले है| संसार से स्वतंत्र होने का अर्थ है परमान्द की अनुभूति करना।

मनुष्य के कर्म दो प्रकार के होते है:

विकर्म:

जब मनुष्य के कार्य कामना पूर्ति के लिये होते है, तो वह कर्म विकर्म कहलाता है। इस प्रकार के कर्म में मनुष्य में कर्ता भाव निश्चित रूप से रहता है।

सत्कर्म:

जब मनुष्य के कार्य सेवा हेतु अन्यों के होते है, और उन कार्यों में कर्त्ता भाव होता है, तब वह कर्म सत्कर्म कहलाता है। मनुष्य को जीवन में केवल सत्कर्म ही करने चाहिये, विकर्म नहीं।

सत्कर्म में अगर मनुष्य कर्ता भाव (अहंकार) का त्याग कर दे, तब वह सत्कर्म कार्य, अकर्म हो जाता है। अकर्म पूर्ण कार्य मनुष्य का कल्याण करने वाला है।

PREVIOUS                                                                                                                                          NEXT

धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष

धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]

Read More

अध्याय