श्रीमद भगवद गीता : ३३

द्रव्यमय यज्ञ से ज्ञानयज्ञ की श्रेष्ठता।

 

श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तप।

सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ।।४.३३।।

 

हे परन्तप! द्रव्यों से सम्पन्न होने वाले यज्ञ की अपेक्षा ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठ है। हे पार्थ! सम्पूर्ण कर्म और पदार्थ तत्त्वज्ञान में समाप्त हो जाते हैं। ||४-३३||

भावार्थ:

अध्याय ४ श्लोक २५ से अध्याय ४ श्लोक ३० तक १२ प्रकार के यज्ञों का वर्ण हुआ है। इस श्लोक में इन यज्ञों को ‘द्रव्यमय यज्ञ’ पद दिया गया है। अध्याय ४ श्लोक २४ में तत्वज्ञान रूपी ब्रह्मयज्ञ का वर्णन हुआ है। इस श्लोक में इस यज्ञ को ‘ज्ञानयज्ञ’ पद दिया गया है। दोनों प्रकार के यज्ञ –  द्रव्यमय यज्ञ एवं ज्ञानयज्ञ मनुष्य का समान रूप से कल्याण करने वाले है।

द्रव्यमय यज्ञ साधना रूपी यज्ञ है, जिस के द्वारा योग को सिद्ध किया जाता है। इस यज्ञ में मनुष्य अपने धर्म का पालन करते हुए साधना करता है। योग की सिद्धि होने पर मनुष्य को उसी तत्वज्ञान की प्राप्ति हो जाती है, जो ज्ञानयज्ञ से होती है। तदुपरान्त उसके सभी कार्य अकर्म भाव से होते है।

ज्ञानयज्ञ, विवेक को जाग्रत करने वाली साधना है । जिसमें विवेक जाग्रत होने पर, मनुष्य जब अपने मनुष्य धर्म का पालन करता है, तब उसके सभी कार्य अकर्म भाव से होते है। ज्ञानयज्ञ की सिद्धि होने पर द्रव्यमय यज्ञ स्वतः ही सिद्ध हो जाते है।

इसलिये इस श्लोक मे ‘द्रव्यमय’ यज्ञ से ‘ज्ञानयज्ञ’ श्रेष्ठ कहा गया है। कारण कि ‘द्रव्यमय’ यज्ञ में साधना के द्वारा योग में स्थित होने में समय लगता है। वही, ज्ञानयज्ञ में क्योकि विवेक-विचार की प्रधानता रहने के कारण विवेक की जाग्रति होते ही तत्वज्ञान हो जाता है और ब्रहा की अनुभूति हो जाती है। ब्रह्म की अनुभूति होने पर क्रिया और पदार्थ तत्वज्ञान में लीन हो जाते है और ब्रह्मयज्ञ सिद्ध हो जाता है और योग सिद्ध हो जाता है।

श्लोक का परिपेक्ष्य:

विद्वान् लोग ज्ञानयज्ञ को ज्ञान योग अथवा सांख्य योग कहते है, और द्रव्यमय यज्ञ में कर्म योग, ध्यान योग, एवं भक्ति योग आ जाते है।

इस श्लोक में ज्ञानयज्ञ की श्रेष्ठा का तत्पर्य यह नहीं की साधक को ‘द्रव्यमय’ यज्ञ में निपूर्णता प्राप्त नहीं करनी है या मनुष्य को संसार के कार्य नहीं करने है। इसका अर्थ यह है कि तत्वज्ञान (विवेक की जाग्रति) की प्राप्ति होने पर ‘द्रव्यमय’ यज्ञ सरलता से सिद्धि हो जाते है। संसार से निर्लिप्ता तो तभी सिद्ध है जब मनुष्य संसार के कार्य करता हुआ निर्लिप्त रहता है। (अध्याय ३ श्लोक ४)

इस श्लोक में श्रेष्ठा का अर्थ यह नहीं है की ज्ञानयज्ञ अधिक कल्याण करने वाला है और द्रव्यमय यज्ञ कम। यहाँ श्रेष्ठा का अर्थ साधना की सरलता से है। जिस मनुष्य में बुद्धि की तीव्रता अधिक है वह ज्ञानयज्ञ को ग्रहण कर पाता है, अन्यों से लिये द्रव्यमय यज्ञ ही सरल उपाय है। द्रव्यमय यज्ञ की साधना को करते हुए मनुष्य का अपना मनुष्य धर्म का पालन भी होता है, जो की उसके जन्म का उद्देश्य है।

अध्याय ४ श्लोक ३८ में योग भली-भाँति सिद्ध होने पर योगी को तत्त्वज्ञान स्वतः ही प्राप्त हो जाता है, ऐसा कहा है। इसके उपरान्त अध्याय ४ श्लोक ३९ में श्रद्धावान् और जितेन्द्रिय पद से द्रव्यमय यज्ञ का वर्णन हुआ है। द्रव्यमय यज्ञ सिद्ध हुआ योगी तत्वज्ञान और परम् शान्ति को प्राप्त होता है। इस से इस बात की पुष्टि होती है कि ज्ञानयज्ञ और द्रव्यमय यज्ञ का फल समान रूप से है और वह परम् शान्ति देने वाला है।

क्योकि अर्जुन और भगवान श्रीकृष्ण युद्ध में खड़े थे, इसलिये श्रीकृष्ण चाहते थे की अगर अर्जुन को तत्व ज्ञान शीघ्रता से ग्रहण हो जायेगा, तो अर्जुन के युद्ध को लेकर सभी संशय समाप्त हो जायेगे और अर्जुन अपने युद्ध रूपी कर्तव्य का पालन कर सकेगा। इसलिये ज्ञानयज्ञ की श्रेष्ठा का वर्णन इस श्लोक से अध्याय ४ श्लोक ४२ तक किया है।

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