श्रीमद भगवद गीता : ०१

योग सिद्धि के लिये कर्म संन्यास और कर्म में क्या श्रेष्ठ है।

 

अर्जुन उवाच

संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि।

यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्िचतम्।।५.१।। 

 

अर्जुन ने कहा:  हे कृष्ण! आप कर्मों के त्याग (संन्यास) की और फिर योग (कर्म के आचरण) की प्रशंसा करते हैं। अतः इन दोनों साधनोंमें जो एक निश्चय पूर्वक श्रेयस्कर हो उसको मेरे लिए कहिये। ||५-१||

भावार्थ:

अध्याय ४ श्लोक ४१ में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि, तुम सभी कार्यों से सम्बन्ध विच्छेद करो। कार्यों से सम्बन्ध विच्छेद से तात्पर्य है कि मनुष्य को सम्पूर्ण कार्यों से फल प्राप्ति की कामना नहीं करनी चाहिये, और प्राप्त फल का हेतु स्वयं को न मान कर परमात्मतत्व को मानना चाहिये। अथार्त समस्त कार्यों में – “मैं करता हूँ”- इस प्रकार जो बुद्धि की अहंता है उसका त्याग ही कार्यों से सम्बन्ध विच्छेद है।

परन्तु अर्जुन कार्यों से सम्बन्द विच्छेद का अर्थ कार्यों का त्याग (सन्यास) समझते है। अर्जुन, कार्यों के त्याग (सन्यास) को परमात्मा प्राप्ति की साधना भी मानते है। इसलिये वह सन्यास (कार्यों का त्याग) साधना और योग (जिसमें कार्यों को करना मुख्य है) साधना में क्या श्रेष्ट है, ऐसा बताने की प्राथना करते है।

श्लोक के सन्दर्भ मे:

कौटुम्बिक स्नेह के कारण अर्जुन के मन में युद्ध न करने का भाव था। इसके समर्थन में अर्जुन ने पहले अध्याय में कई तर्क और युक्तियाँ भी सामने रखीं। उन्होंने युद्ध करने को पाप बताया (अध्याय १ श्लोक ४५)। वे युद्ध न करके भिक्षा के अन्नसे जीवन-निर्वाह करने को श्रेष्ठ समझने लगे (अध्याय २ श्लोक ५) और उन्होंने निश्चय करके भगवान से स्पष्ट कह भी दिया कि मैं किसी भी स्थिति में युद्ध नहीं करूँगा (अध्याय २ श्लोक ८)।

प्रायः श्रोता, वक्ता के शब्दों का अर्थ अपने विचार के अनुसार लगाया करते हैं । स्वजनों को देख कर अर्जुन के मन में जो मोह पैदा हुआ, उसके अनुसार उन्हें युद्ध रूप कर्म के त्याग की बात उचित प्रतीत होने लगी। अतः भगवान के शब्दों को वे अपने विचार के अनुसार समझ रहे हैं कि भगवान कर्मों का स्वरूप से त्याग करके प्रचलित प्रणाली के अनुसार तत्वज्ञान प्राप्त करने की ही प्रशंसा कर रहे हैं। इसलिये अर्जुन कार्यों से सम्बन्ध विच्छेद का अर्थ कार्यों का त्याग समझ रहे है।

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