भावार्थ:
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि योग में स्थित होने के लिये कर्तव्य रूपी कार्यों को करना कल्याण कारक है। जो साधक कामना पूर्ति के लिये किए जाने वाले कार्यों का त्याग करता है, कार्यों से सन्यास लेता है, वह प्रथम द्रष्टि से सकारात्मक पहल है और साधक के लिये कल्याणकारक भी है।
परन्तु केवल कामना पूर्ति की लिये होने वाले कार्यों से सन्यास लेना पर्याप्त नहीं है। कारण कि प्रकृत्ति पदार्थों एवं कार्यों से सन्यास लेने पर भी, मन में उनके प्रति रस बुद्धी रहती और उन पदार्थों एवं कार्यो का मनन होता रहता है। और उनके सम्पर्क में आने पर मन उनके प्रति आकर्षित हो जाता है। संसार के कार्यों से सन्यास लेना मनुष्य जीवन का उदेश्य भी नहीं है।
अतः योग सिद्धी के लिये एवम भागवत प्राप्ति के लिये, कामना से प्रेरित कार्यों का तो त्याग (सन्यास) करना है, परन्तु कर्तव्य कर्मों को निश्चित रूप से करना है।
जो मनुष्य कर्मों के सन्यास को ही योग मानता है, वह गलत मानता है।
योग है, समाज कल्याण के लिये अपने कर्तव्यों को करना और कामना, ममता, आसक्ति, अहंता का त्याग करना। योग का विस्तार से वर्णन पूर्व के अध्यायों में हुआ है।
श्लोक के सन्दर्भ में:
संसारिक दृष्टि से प्राय मनुष्य संन्यास का अर्थ – संसारिक पदार्थों का त्याग एवं शरीर की शारीरिक क्रिया को हठपूर्वक ना करना मानलेता है।
मूल रूप से भगवान श्रीकृष्ण का ‘सन्यासः’ पद से कर्मों में अहंता (मैं करता हूँ) का त्याग ही कर्मों से सम्बन्ध विच्छेद करना है।
धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]
Read MoreTo give feedback write to info@standupbharat.in
Copyright © standupbharat 2024 | Copyright © Bhagavad Geeta – Jan Kalyan Stotr 2024