श्रीमद भगवद गीता : ०३

योग में संन्यास- द्वेष, आकांक्षा का है। द्वन्द्व रहित साधक बन्धन मुक्त है।

 

ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति।

निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते ।।५.३।। 

 

हे महाबाहो! जो मनुष्य न किसी से द्वेष करता है और न किसी से आकांक्षा करता है; वह सदा संन्यासी ही समझने योग्य है; क्योंकि, द्वन्द्वों से रहित पुरुष सहज ही बन्धन मुक्त हो जाता है। ||५-१||

भावार्थ:

जो साधक पदार्थ एवं परिस्थिति के प्राप्त होने पर राग-द्वेष रहित रहता है, अर्थात राग-द्वेष का त्याग करता है, और प्राप्त कर्तव्यों को करता है,  वह राग-द्वेष का त्यागी ही सन्यासी है।

जो साधक प्राणियों से किसी प्रकार की आकांक्षा नहीं रखता और उनके कल्याण के लिये कार्य करता है, वह आकांक्षा का त्यागी ही सन्यासी है।

साधना के आरम्भ में साधक कभी, परमात्मा प्राप्ति को अपना ध्येय मानता और योग करता है, और कभी उसके अपने कहलाने वाले मन, इन्द्रियों स्वाभाविक ही उसको भोग भोगने तथा संग्रह करने में लगा देती है।

इस प्रकार साधक के अन्तःकरण में द्वन्द्व चलता रहता है कि भोग भोगूँ  अथवा साधना करूँ। अतः भगवान श्री कृष्ण कहते है कि हे अर्जुन तुम दुंद से रहित हो जा और परमात्मा प्राप्ति के लिये एक निश्चय बुद्धि कर ले। क्योकि तभी तुम सुखपूर्वक संसार बन्धन से मुक्त हो सकते हो।

समस्त संसारिक कार्यों को करते हुए भी उन कार्यों से किसी प्रकार राग-द्वेष न होना और प्राणी से आकांक्षा का न होना ही, सम्बन्ध न रखना है – संन्यास है – योग है।

श्लोक के सन्दर्भ में:

प्राय मनुष्य जब किसी के लिये कुछ अच्छा करता है, तो वह उससे आकांक्षा कर लेता है कि वह भी उसके लिये कुछ अच्छा करेगा। यह ही बन्धन और दुःख का कारण है। इसलिये आकांक्षा का त्याग करने को कहा गया है।

यदि साधक का किसी के भी साथ किंचिन्मात्र भी दुवश रहेगा तो उसके द्वारा योग का आचरण सांगोपांग नहीं हो सकेगा।

जिस साधक में राग-द्वेष और आकांक्षा का अभाव हो गया है, उसे कहे गये संन्यास आश्रम में जाने की आवश्यकता नहीं है। अपितु राग-द्वेष और आकांक्षा का अभाव हो जाने पर व्यक्ति, वस्तु, शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि अपनी नहीं है और अपने लिये भी नहीं है – ऐसा अनुभव हो जाता है। फिर व्यवहार काल में अन्यों को संसार से सम्बन्ध दिखने पर भी स्वयं भीतर से संसार से सम्बन्ध नहीं रहता। यह ही योग में स्थित होना है।

PREVIOUS                                                                                                                                          NEXT

धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष

धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]

Read More

अध्याय