श्रीमद भगवद गीता : ०६

कर्मयोग के बिना संन्यास सिद्ध नहीं है।

संन्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः।

योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति ।।५.६।। 

 

परन्तु हे महाबाहो! कर्मयोगके बिना संन्यास (योग) सिद्ध नहीं है। योग से युक्त, मुनिः (मननशील) शीघ्र ही ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है। ||५-६||

भावार्थ:

सन्यास क्या है, इस पर पुनः विचार करे।

  1. बुद्धिं में इन्द्रियों के विषयों का जो रस है, उससे निवृर्ति
  2. राग-द्वेष का त्याग
  3. आकांक्षा का त्याग
  4. बुद्धि से अहंता का त्याग

मनुष्य को जो शरीर, इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि प्राप्त हुई है वह सृष्टि, प्रकृति, संसार के कार्य करने के लिये हुई है न की निष्क्रिय रहने के लिये। अतः सन्यास में क्रिया का त्याग करना, इंन्द्रियों का इंन्द्रियों के विषय से हठपूर्वक हटाना, उनके कार्यों का दमन करना, मनुष्य जीवन का उद्देश्य नहीं हो सकता। परमात्मा ने अन्य प्राणीओं की अपेक्षा मनुष्य को विशेषता से जो गुण, शक्ति, क्षमता, प्रदान करी है, उसको वह समाज कल्याण के लिये प्रयोग करे, यह ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है। न की कामना और भोग में ही जीवन को व्यर्थ कर दे।

जो मनुष्य इन्द्रियों को इन्द्रियों के विषय से हटाने के लिये हठपूर्वक सांसारिक कार्यों का त्याग करता है और उसको संन्यास कहता है, ऐसे मनुष्य को भगवान श्री कृष्ण ने अध्याय ३ श्लोक ६ में मूढ़ बुद्धिवाला एवं मिथ्याचारी कहा है।

अतः भगवान श्री कृष्ण कहते है कि, मनुष्य जब तक सांसारिक कार्य नहीं करेगा तबतक, व्यवहार काल में उत्पन्न होने आने वाले राग-दुवेश, आसक्ति, अहंता का त्याग किस प्रकार सिद्ध होगा। अतः मनुष्य को संसारिक कार्य निश्चित रूप से करने चाहिये। त्याग सांसारिक पदार्थ, परिस्थिति एवं कार्य का नहीं है अपितु इनसे सम्बन्ध रखकर अन्तःकरण के विषमता रूपी भावों का है।

योग में स्वधर्म का पालन, मनुष्य धर्म का पालन संसार के कल्याण ले लिये होता है, स्वयं की कामना पूर्ति के लिये नहीं।

भगवान श्री कृष्ण इस श्लोक में योग प्रक्रिया की एक और बिन्दु को जोड़ते है। भगवान श्री कृष्ण कहते है कि वह साधक जिसका सांख्य योग और कर्म योग सिद्धि हो गया है और उसके मन में चिन्तन संसार का न हो कर केवल परमात्मा का ही चिन्तन होता हो, वह साधक शीघ्र ही ब्रह्म (परमात्मतत्व-परम् आंनद) को प्राप्त हो जाता है।

परमात्मा का चिन्तन का अर्थ है कि व्यवहार काल में संसार के कल्याण का चिन्तन और एकान्त काल में परमात्मा का चिन्तन।

यह योग की पूर्ण सिद्धि की स्थिति है।

श्लोक के सन्दर्भ में:

योगी प्रत्येक क्रिया को करते समय यह देखता रहता है कि मेरा भाव निष्काम (दूसरों के लिये) है या सकाम? सकाम भाव आते ही वह उसे मिटा देता है। ऐसे मननशील योगी को समता प्राप्त (योग स्थित) होने पर शीघ्र ही ब्रहा (तत्वज्ञान) की प्राप्ति हो जाती है। इसी आशय को भगवान ने अध्याय ४ श्लोक ३८  में कहा कि योगी, योग सिद्ध होने पर तत्वज्ञान को आवश्य  ही स्वयं अपने-आपमें पा लेता है|

अध्याय ४ श्लोक ३८ में ‘ आवश्य‘ और इस श्लोक में ‘शीघ्र‘ पद से योग की श्रेष्ठता को व्यक्त किया गया है

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