भावार्थ:
देखना, सुनना, स्पर्श करना, सूँघना और खाना – ये ज्ञानेन्द्रियों की क्रियाएँ है। चलना, ग्रहण करना, बोलना और मल-मूत्रका त्याग करना – ये कर्मेन्द्रियों की क्रियाएँ है। सोना अन्तःकरण की क्रिया है। श्वास लेना प्राण की क्रिया है। आँखें खोलना तथा मूँदना – ये दो क्रियाएँ उपप्राण की हैं।
साधक विचार करे तो पाएगा कि यह सभी तेरह क्रियाएँ शरीर में स्वतः ही हो रही है। बुद्धि को चेतन तत्व से स्वयं के होने (“मैं हूँ”) का बोध होता है और इन तेरह क्रियाओं के होने का ज्ञान होता है। मूढ़ता वश बुद्धि स्वयं के होने के ज्ञान को शरीर से होने वाली क्रियाओं के साथ सम्बन्ध मान कर यह मान लेता है, कि यह सभी कार्य उसके द्वारा हो रहे है। जबकि यह सभी कार्य शरीर में स्वतः ही हो रहे है।
परन्तु योग युक्त साधक अनुभव करता है कि शरीर के कार्य शरीर से हो रहे है। यह अनुभव ही तत्व ज्ञान है।
इस श्लोक में योग युक्त के लिये तत्त्ववित् युक्तः आया है। अर्थात साधक को स्पष्टता से अनुभव होता है कि शरीर (इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि) के द्वारा होने वाले कार्यों का कारण परमात्मा है। उसकी बुद्धि में स्थित अहंकार नहीं है।
वह अनुभव करता है कि सभी क्रियाएँ प्रकृति में ही हो रही हैं, और उन क्रियाओंका उसके बुद्धि के माने हुये अहंता (मैं कर्ता हूँ) के साथ कोई सम्बन्ध है ही नहीं। जो अपने में अर्थात् स्वरूप में कभी किञ्चिन्मात्र भी किसी क्रिया के कर्तापन को नहीं देखता, वह ही तत्व ज्ञान है। इस तत्व ज्ञान का अनुभव योग में स्थित होने पर ही होता है।
बुद्धि के द्वारा इस तत्व को केवल जान लेना पर्याप्त नहीं है।
अतः योग युक्त साधक को तत्व ज्ञान का अनुभव होने से उसका अन्त:करण शुद्ध रहता है, और वह संसार के सभी कार्य को करता हुआ भी संसार से निर्लिप्त रहता है।
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