भावार्थ:
योग युक्त्त साधक के सभी कार्य स्वयं (माने हुये शरीर) के लिये न हो कर समाज कल्याण के लिये होते है। और जब वह कार्यों को करता है, तो उन कार्यों से फल प्राप्ति की इच्छा नहीं रखता एवं प्राप्त फल का भी वह त्याग करता है। यहाँ फल त्याग का अर्थ है फल से राग-द्वेष न करना और उसका भोग नहीं भोगना। योग युक्त्त साधक प्राप्त फल को पुनः समाज के कल्याण के लिये लगा देता है।
क्योकि वह जानता है कि उसके द्वारा किये जाने वाले कार्यों का कारण परमात्मा है, उसके कार्य परमात्मा के लिये है और कार्यों से प्राप्त फल भी परमात्मा को ही अर्पण है।
ऐसा करने से साधक को परम शान्ति की प्राप्ति होती है।
परन्तु जो योग युक्त्त (निश्चित बुद्धि) नहीं है, वह फल की कामना करके और प्राप्त फल के साथ सम्बन्ध मान कर पुनः संसार से बँध जाता है। अर्थात सुख-दुःख में बँध जाता है।
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