भावार्थ:
सन्यास से तात्पर्य क्या है और योग युक्त साधक का आचरण किस प्रकार का होता है, इसका वर्णन श्लोक ५-२ से श्लोक ५-१२ विस्तार से हुआ है।
अतः सन्यास है
‘नवद्वारे पुरे’- शरीर में दो कान, दो नेत्र, दो नासिकाछिद्र तथा एक मुख, ये सात द्वार शरीरके ऊपरी भागमें हैं, और मल-मूत्रका त्याग करनेके लिये गुदा और उपस्थ, ये दो द्वार शरीरके निचले भागमें हैं। इन नौ द्वारोंवाले शरीरको ‘पुर’ अर्थात् नगर कहने का तात्पर्य यह है कि जैसे नगर और उसमें रहने वाला मनुष्य – दोनों अलग-अलग होते हैं, ऐसे ही यह शरीर और इसमें रहने का भाव रखने वाला जीवात्मा, दोनों अलग-अलग हैं। जैसे नगर में रहने वाला मनुष्य नगर में होने वाली क्रियाओं को अपनी क्रियाएँ नहीं मानता, ऐसे ही योगी शरीर में होने वाली क्रियाओं को अपनी क्रियाएँ नहीं मानता।
बुद्धि में जो अहंता (“मैं कार्यों को करता हूँ”) रहती है उसको और स्पष्टता से भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक में व्यक्त करते है कि, अहंता रूपी बुद्धि न तो स्वयं कार्य को करती है और न शरीर से करवाती है।
धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]
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