श्रीमद भगवद गीता : १४

प्रभु संसार को चलाने वाला कर्ता (संचालक) नहीं है।

 

न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः।

न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ।।५.१४।। 

 

प्रभुः मनुष्यों के न कर्तापन की, न कर्मों की और न कर्मफल के साथ संयोगकी रचना करते हैं; किन्तु स्वभाव ही बरत रहा है। ||५-१४||

 

भावार्थ:

अज्ञानी मनुष्य ‘स्वयं’ में और शरीर में अभिन्न एकता मानता है और सभी कार्य मेरे द्वारा हो रहे है ऐसा मानता है। कार्य की सिद्धि और उसके फल का श्रय भी वह अपने कार्य शैली और क्षमता को देता है।

परन्तु मनुष्य को जब यह कहा (अध्याय ५ श्लोक १०) जाता है की सभी कार्य परमात्मा की कृपा से हो रहे है और फल के लिये भी परमात्मा कारण है, तो मनुष्य परमात्मा को कर्ता रूप में देखता है। स्वयं के समान मनुष्य परमात्मा को भी सकार रूप में देखता है और ऐसा मानता है कि करने वाला और करवाने वाला परमात्मा ही है।

मनुष्य जीवन में जो अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति उत्त्पन्न होती है, उनको उत्त्पन्न करने वाला परमात्मा ही है। कर्मों के अनुसार मनुष्य को जो फल की प्राप्ति होती है, उसको देने वाला परमात्मा ही है। मनुष्य को जो प्रेरणा होती है, अथवा कामना उत्त्पन्न होती है, उसको उत्त्पन्न करने वाला भी परमात्मा ही है।

भगवान श्रीकृष्ण स्पष्ट रूप से इस श्लोक में इन विचारों का पूर्ण रूप से खण्डन करते है। संसार में और मनुष्य द्वारा जो भी कोई कार्य होते है, उन सब के पीछे कारण तो परमात्मा है, परन्तु  परमात्मा स्वयं कर्ता नहीं है।

किसी भी कार्य का करता कौन होगा इसका विचार भगवान नहीं करते। मनुष्य स्वयं से ही कार्य में अपने कर्तापन (कार्य से सम्बन्ध) की रचना करता है। इस बात की पुष्टि गीता के श्लोक ३-२७ में हुई है – सम्पूर्ण कर्म सब प्रकारसे प्रकृति (शरीर, मन, बुद्धि) के गुणों द्वारा स्वतः होते है; परन्तु मनुष्य की बुद्धि अज्ञानता वश शरीर के द्वारा होने वाले क्रियाओं का कर्ता बन जाता है।

अध्याय ५ श्लोक ८ में वर्णन हुआ है कि – ‘ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ द्वारा जितने भी कार्य हो रहे है वह सब मनुष्य की प्रकृति के प्रभाव में ही हो रहे हैं, और स्वयं (चेतनतत्त्व) से इनका कोई सम्बन्ध नहीं है। इससे स्पष्ट होता है की कर्तापन का सम्बन्ध भगवान का बनाया हुआ नहीं है अपितु मनुष्य का अपना माना हुआ है।

भगवान ऐसा विधान भी नहीं करते कि अमुक मनुष्य को अमुक शुभ अथवा अशुभ कार्य करना पड़ेगा। कार्य को करना या न करने का विचार बुद्धि का है। बुद्धि -आसक्ति, राग-द्वेष, कामना और अपने संस्कार के वश हो कर कार्य में प्रवृति-निवृति का विचार करती है।

अध्याय २ श्लोक ४७ में ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते’ पद से कार्य करने में तेरा (मन-बुद्धि) अधिकार है’ परन्तु कर्म के इच्छित फल का तू अधिकारी नहीं। इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि प्रभु कर्मफल का संयोग नहीं करते। अर्थात प्रभुः अमुक कार्य का अमुक फल, अमुक मनुष्य को प्राप्त हो ऐसे संयोग की रचना नहीं करते।

कारण की सभी कार्य प्रकृति में हो रहे है, और उन कार्यों का फल प्रकृति से परिस्थिति अनुसार स्वतः ही प्राप्त होता है। यह प्रक्रिया स्वः चलित है। इसमें किसी का कोई हस्तक्षेप नहीं है।

कार्य का फल तो स्वतः प्राप्त होता है, किन्तु मनुष्य उस पहल से सम्बन्ध मान कर अनुकूल-प्रतिकूल भाव कर लेता है और सुखी-दुःखी होता है।

यदि कार्य के फल का सम्बन्ध भगवान ने जोड़ा होता तो मनुष्य कभी कर्मफल से मुक्त नहीं हो सकता था।

अतः मनुष्य अज्ञानवश कामना पूर्ति के लिये कार्यों का कर्ता बनकर प्राप्त फल के साथ अपना सम्बन्ध जोड़ लेता है और इसी से सुखी-दुःखी होता है। और यह सब मनुष्य अपने स्वभाव के कारण ही करता है।

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