भावार्थ:
पूर्व श्लोक की बात को आगे ले जाते हुए भगवान श्री कृष्ण कहते है कि सर्वव्यापी परमात्मा मनुष्य के पापकर्मों को या शुभ कर्मों को ग्रहण (आंकलन) करके उसके यथार्त फल की रचना नहीं करते हैं। फल तो कार्य और परिस्थिति से अनुसार स्वतः ही प्राप्त होते है।
परन्तु अज्ञानता वश, मनुष्य जब स्वयं को कार्यो का कर्ता मान लेता है, तब वह कार्य (कर्ता मान लेने के कारण) पाप कर्म अथवा शुभ कर्म में परणित हो जाते है। फल से सम्बन्ध मानने से, फल में अनुकूल अथवा प्रतिकूल परिस्थिति का भाव उत्त्पन्न होता है। कर्ता का भाव होने से मनुष्य को लगता है कि उसके शुभ कर्म के परिणाम में उसको अनुकूल फल प्राप्त हुआ है। पाप कर्म के परिणाम में उसको प्रतिकूल फल प्राप्त हुआ है।
अज्ञान – ज्ञान के आभाव का वाचक नहीं है, प्रत्युत अधूरे ज्ञान का वाचक है। बुद्धि का ज्ञान ही अधूरा ज्ञान है। इस अधूरे ज्ञान को महत्व देने से, इसके प्रभाव से प्रभावित होनेसे वास्तविक (परमात्मतत्व) ज्ञान की और दृष्टि जाती ही नहीं – यही अज्ञान के द्वारा ज्ञान का आवृत (ढका) होना है।
भगवान ने ‘जन्तवः’ (जीव) पद देकर मानो मनुष्यों की ताड़ना की है कि जो मनुष्य अपने विवेक को महत्व नहीं देते, वे वास्तवमें पशु ही हैं। आकृति मात्र से कोई मनुष्य नहीं होता| इन्द्रियों के द्वारा भोग तो पशु भी भोगते हैं; पर उन भोगों को भोगना मनुष्य जीवन का लक्ष्य यहीं है। मनुष्य-जीवन का लक्ष्य सुख-दुःख से रहित तत्व को प्राप्त करना है। जिनको अपने कर्तव्य-अकर्तव्य का ठीक-ठीक ज्ञान है, वे मनुष्य साधक कहलाने योग्य हैं।
धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]
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