श्रीमद भगवद गीता : १६

तत्वज्ञान सूर्य के प्रकाश के समान परमात्मतत्व को प्रकाशित कर देता है।

 

ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः।

तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम् ।।५.१६।। 

 

परन्तु जिन्होंने वह अज्ञान आत्मज्ञान से नष्ट कर दिया है, उनके लिए वह ज्ञान, सूर्य के  सदृश, परमतत्त्व परमात्माको प्रकाशित कर देता है। ||५-१६||

 

भावार्थ:

अपनी सत्ता (शरीरी) को और शरीर को अलग-अलग मानना विवेक जाग्रति है और एक मानना ‘अज्ञान’ है।

अपनी सत्ता का तो निरन्तर अनुभव होता है और मैं-मेरापन (शरीर) बदलता हुआ प्रत्यक्ष दीखता है; जैसे – पहले मैं बालक था और खिलौने आदि मेरे थे, अब मैं युवा या वृद्ध हूँ और स्त्री, पुत्र, धन, मकान आदि मेरे हैं। इस प्रकार मैं-मेरेपन के परिवर्तन का ज्ञान हमें है, पर अपनी सत्ता के अपरिवर्तन का ज्ञान हमे नहीं है – सत्ता के अपरिवर्तन का ज्ञान होना ही विवेक की जाग्रति है।

शरीर ‘मैं’ नहीं और बदलनेवाली वस्तु ‘मेरी’ नहीं। यही विवेक के द्वारा अज्ञान का नाश करना है। जिसने विवेक को जाग्रत करके परिवर्तनशील मैं-मेरे पन के सम्बन्ध का विच्छेद कर दिया है, उसका वह विवेक सच्चिदानन्दघन परमात्मा को प्रकाशित कर देता है अर्थात अनुभव करा देता है।

सूर्य का उदय होने से नयी वस्तु का निर्माण नहीं होता, प्रत्युत अन्धकार से ढक जाने के कारण जो वस्तु दिखायी नहीं दे रही थी, वह दिखने लग जाती है। इसी प्रकार परमात्मतत्व स्वतः सिद्ध है, पर अज्ञान के कारण उसका अनुभव नहीं हो रहा था। विवेक के द्वारा अज्ञान मिटते ही उस स्वतः सिद्ध परमात्मतत्व का अनुभव होने लग जाता है।

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