श्रीमद भगवद गीता : १७

ब्रह्मा निष्ट, योग युक्त का देह से सम्बन्ध छूट कर पाप रहित हो जाता है।

 

तद्बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणाः।

गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः ।।५.१७।। 

 

जिनकी बुद्धि उस (परमात्मा) में स्थित है, वह परब्रह्म ही जिसकी आत्मा है वे तदात्मा हैं, उसमें ही जिनकी निष्ठा है, वह (ब्रह्म) ही जिनका परम लक्ष्य है, ऐसे परमात्मपरायण संन्यासी ज्ञानके द्वारा पापरहित होकर, अपुनरावृत्तिको (देहसे सम्बन्ध होना छूट जाता है) प्राप्त होते हैं। ||५-१७||

 

भावार्थ:

तद्बुद्धयः‘ – साधक पहले बुद्धि से यह निश्चय करे कि सर्वत्र एक परमात्मतत्व ही परिपूर्ण है। संसार/शरीर के उत्पन्न होने से पहले भी परमात्मा थे और संसार/शरीर के नष्ट होने के बाद भी परमात्मा रहेंगे। बीच में भी संसार\शरीर का प्रवाह चल रहा है, उसमें भी परमात्मा वैसे-के-वैसे ही हैं।  इस प्रकार परमात्मा की सत्ता में अटल निश्चय होना ही ‘तद्बुद्धयः’ है।

व्यवसायात्मिका बुद्धि (परमात्मा की केवल कामना) पद का प्रयोग दूसरें अध्याय के इकतालीसवें श्लोक किया है|

जब बुद्धि में एक परमात्मतत्व का निश्चय हो जाता है, तब मनसे स्वतः – स्वाभाविक परमात्मा का चिन्तन होने लगता है। सब क्रियाएँ करते समय यह चिन्तन अखण्ड रहता है कि सता रूप से सब जगह एक परमात्मतत्व ही परिपूर्ण है।

जब साधक के मन और बुद्धि परमात्मा में लग जाते हैं, तब वह हर समय परमात्मा में अपनी स्वयं की स्वतः स्वाभाविक स्थिति का अनुभव करता है।

परमात्मा में अपनी स्वयं की स्वतः स्वाभाविक स्थिति का अनुभव करना परमात्मपरायण होना है।

अविनाशी-विनाशी के विवेक की वास्तविक जागृति होने पर विनाशी की सर्वथा निवृति हो जाती है, और समस्त कार्य पाप रहित हो जाते है।

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