श्रीमद भगवद गीता : १९

समता में स्थित इस जीवन कल में ही ब्रह्ममें ही स्थित हैं।

 

इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः।

निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः ।।५-१९।। 

 

जिनका अन्तःकरण समत्वभाव में स्थित है, उन्होंने इस जीवित-अवस्थामें ही सम्पूर्ण संसारको जीत लिया है; क्योंकि ब्रह्म निर्दोष और सम है, इसलिये वे ब्रह्ममें ही स्थित हैं। ||५-१९||

भावार्थ:

पूर्व श्लोक (अध्याय ५ श्लोक १८) में वर्णन हुआ है कि –

संसारिक कार्यों में महापुरुष प्राणी-पदार्थ के गुणों के अनुरूप व्यवहार करता है परन्तु अन्तःकरण में उन सब के प्रति समभाव रखता है। महापुरुष किसी प्राणी में दोष नहीं देखता, राग-द्वेष नहीं करता और न ही पक्षपात करता है।

इस प्रकार संसारिक कार्यों को करते हुए भी जिसका अन्तःकरण समत्वभाव में स्थित है, वह वर्तमान जीवन में ही संसार पर विजय प्राप्त कर लेता है। अर्थात संसार के बन्धनों से मुक्त हो जाता है।

क्योकि ब्रह्म निर्दोष है, – विषमता, विकार रहित, और सम है। इसलिये जब महापुरुष का अन्तःकरण निर्विकार, निर्लिप्त, निर्दोष और समता को पा लेता है, तब वह ब्रह्म में ही स्थित हो जाता है। यह ही ब्रह्म स्थिति है।

श्लोक के सन्दर्भ मे:

ब्रह्म में स्थिति महापुरुष को बाहर से देखने पर वह साधारण पुरुष के समान सभी कार्य और व्यवहार करता दिखता है। परन्तु अन्तःकरण निर्विकार, निर्लिप्त, निर्दोष शान्त और समता में स्थित रहता है। इस के विपरीत साधारण पुरुष भी संसार के सभी कार्य और व्यवहार  करता है, परन्तु उसके अन्तःकरण में विषमता, विकार, दोष, अशान्ति सर्वदा बनी रहती है।

इस श्लोक दूसरी मुख्य बात यह कही है कि, सभी मनुष्य अपने वर्तमान जीवन में संसार को जीत सकते है। अर्थात संसार से मुक्त हो सकता है और ब्रह्म (परमात्मतत्व) में स्थित हो सकते है।

इन्द्रियों के विषयों में राग होने से कामना उत्पन्न होती है। कामना पूर्ति का संकल्प करते ही मनुष्य पराधीन हो जाता है। जब तक कामना की पूर्ति नहीं होती, तब तक उसके अभाव के कारण मनुष्य दुःख और पराधीनता का अनुभव करता है। कामना की पूर्ति होनेपर अर्थात वस्तु/अनुकूल परिस्थिति मिलने पर, उसको भोगने में लगा रहता है और साथ ही उसके भोग में कोई विघ्न न आ जाय ऐसा भय रहता है।

भोग विलास में रहने से बुद्धि में ऐसा अँधेरा छा जाता है कि पराधीन रहते हुए भी मनुष्य को पराधीनता का अनुभव नहीं होता, प्रत्युत स्वाधीनता का अनुभव होता है। प्राप्त वस्तु /अनुकूल परिस्थिति से वियोग होने से मनुष्य को पुनः क्रोध और दुःख की अनुभूति होती है।

अतः जो कामना से रहित है और जिसके अन्तःकरण में निरंतर समता, निर्दोषता, शांति आदि रहती है वह सुख-दुःख रूपी संसारिक चक्र के बन्धन से मुक्त है और अपने इस जीवन काल में ही मुक्त हैं।

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