श्रीमद भगवद गीता : २२

विवेकशील, अनित्य संसारिक सुख में रमण नहीं करता।

 

ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते।

आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः ।।५.२२।।

 

हे कौन्तेय! जो इन्द्रियों और विषयोंके संयोगसे उत्पन्न होनेवाले भोग (सुख) हैं, वे आदि-अन्तवाले और दुःखके ही हेतु हैं। अतः विवेकशील मनुष्य उनमें रमण नहीं करता। ||५-२२||

 

भावार्थ:

संसारिक सुख-दुःख अनित्य है, इसका वर्णन अध्याय २ श्लोक १४ में भी हुआ है।

इन्द्रियों के विषयों में रागपूर्वक सम्बन्द होने पर जो सुख प्रतीत होता है, उसे ‘भोग’ ‘कहते है।

प्रकृति पदार्थ में सुख है ही नहीं। दुःख के अभाव का ज्ञान होना ही सुख है। पहले वस्तु के अभाव का दुःख होता है। वस्तु के प्राप्त होने पर दुःख की निवृति होती और अब दुःख नहीं है ऐसा भाव होता है जिसको सुख कहा गया है। वस्तु के अभाव का दुःख जितनी मात्रा में होता है, वस्तु के मिलने का सुख भी उतनी ही मात्रा में होता है।

भोग वस्तु के नाश या बिछुड़ जाने की आशंका से ह्रदय में सन्ताप होता है परन्तु भोग वस्तु का अभी नाश नहीं हुआ है यह ज्ञान पुनः सुख की अनुभूति करा देता है।

वस्तु में राग मिट जाने पर उस वस्तु से स्वतः ही सम्बन्द विच्छेद हो जाता है और वह सुख देने वाले नहीं रहते। वस्तु में राग मिट जाने पर भी उनमे ममता रहने से जब उन वस्तु से वियोग होता है तो दुःख की अनुभूति होती है। परन्तु अगर राग मिटा नहीं है और वस्तु से वियोग होता है तो दुःख की अनुभूति अधिक होती है।

वस्तु अपने पास है और अन्यों के पास नहीं है यह अहम भाव भी सुख की अनुभूति करता है।

अतः यह सुख अनित्य है और विवेकशील मनुष्य इनके अधीन नहीं होता-कामना नहीं करता।

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