भावार्थ:
इस श्लोक में पुनः कामना और कामना से उत्त्पन्न क्रोध से मुक्त को संन्यासी कहा है। इस प्रकार जो विषमता और विकारों से मुक्त, समता में स्थित अन्तःकरण वाला है, वह संन्यासी है।
पूर्व श्लोक (अध्याय ५ श्लोक २५) में स्पष्टता से वर्णन हुआ है की संन्यासी सभी प्राणियों के हित में रत हैं। अर्थात हित के लिये कार्य करता है, कार्यों का त्याग नहीं करता।
संन्यासी का चित परमात्मा में लीन रहता है। वह संसारिक विषयों का चिन्तन नहीं करता।
ऐसे योग में स्थित संन्यासी को सब जगह नित्य रहने वाली निर्वाण ब्रह्मा (शान्ति) की अनुभूति होती है।
अतः जब मन-बुद्धि पूर्ण रूप से शान्त होता है, उसमें किसी प्रकार की हल-चल नहीं रहती, यह अनुभव ही ब्रह्मा की प्राप्ति है। परमात्मा की प्राप्ति है, निर्वाण की प्राप्ति है।
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