श्रीमद भगवद गीता : २८

मोक्ष-परायण साधक – इच्छा, भय और क्रोधसे सर्वथा मुक्त है।

 

यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः।

विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः ।।५.२८।।

 

 

जिसकी इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि अपने वशमें हैं, जो मोक्ष-परायण है वह मुनि इच्छा, भय और क्रोधसे सर्वथा मुक्त है। ||५-२८||

भावार्थ:

परमात्मा प्राप्ति करना ही जिनका लक्ष्य है, ऐसे परमात्मा स्वरूप का मनन करने वाले साधक को यहाँ ‘मोक्षपरायणः’ कहा गया है। इन्द्रियों के विषय (संसार) का ज्ञान बुद्धि को होता है और परमात्मतत्व का ज्ञान भी बुद्धि को होता है।

इन्द्रियों के विषय में राग-द्वेष होने के कारण बुद्धि इन्द्रियों के विषय में अनुकूलता-प्रतिकूलता करलेती है। और मनुष्य शरीर से सम्बन्ध मान कर उन विषयों का भोक्ता बन जाता है। अतः जब तक मनुष्य की बुद्धि में इन्द्रियों के विषय की महत्ता रहती है तब तक वह सुख-दुःख के बन्धन से बँधा रहता है।

मन पर इन्द्रियों के विषय के प्रभाव को इस बात से देख जा सकता है, कि मनुष्य को शरीर के लिये क्या हानि कारक और क्या नहीं है, ऐसा बुद्धि ज्ञान होता है। फिर भी वह इन्द्रियों के प्रभाव में उस हानि कारक कार्य अथवा पदार्थ का उपभोग करता है।

इस के विपरीत जब बुद्धि सुख-दुःख के बन्धन से मुक्ति और परम आनन्द, परम् शान्ति की प्राप्ति को ही अपने जीवन का उद्देश्य बना लेती है तब वह मनुष्य ‘मोक्षपरायणः’ कहा जाता है।

मोक्षपरायणः होने पर मनुष्य शरीर के सुख को लेकर जो इच्छा है उसका त्याग कर देता है। इच्छा न रहने पर मनुष्य भय और क्रोध से मुक्त हो जाता है।

जो मुक्त है, उसपर किसी भी अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति, निन्दा-स्तुति, जीवन-मरण आदि का किंचिन्मात्र भी असर नहीं पड़ता।

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