भावार्थ:
मनुष्य जब कोई सेवा हेतु कार्य करता है, अथवा दान करता है, तो जिसके लिये वह कार्य/दान करता है, उसे उस कार्य का भोक्ता मानता है। जैसे-किसी भूखे व्यक्ति को अन्न दिया, तो जिसको दिया उसे अन्न का भोक्ता मानता है। इस मान्यता को दूर करने के लिये भगवान इस श्लोक में कहते हैं की वास्तव में सम्पूर्ण (यज्ञों-तपों) कार्यो/दान का भोक्ता मैं (परमात्मतत्व) ही हूँ, प्रत्यक्ष रूप से प्राप्त करने वाला नहीं।
दूसरी बात यह है कि जिस शरीर-मन-बुद्धि-इन्द्रियाँ से कार्य किया जाता है वह भी परमात्मतत्व के ही हैं, स्वयं के नहीं।
साधक के अनुभव में जब यह आ जाता है कि सम्पूर्ण लोकों में तथा सम्पूर्ण प्राणियों में केवल और केवल परमात्मतत्व की व्याप्त एवं परिपूर्ण है और जो यज्ञ-तप करने वाला और जिसके लिये करने वाला है वह सब ही परमात्मतत्व है – तब वह साधक शान्ति को प्राप्त हो जाता है।
इसी बात को भगवान श्री कृष्ण ने चौथें अध्याय के उनत्तीसवें श्लोक में भी कहा है।
मनुष्य की यह बहुत बड़ी भूल है कि वह कार्य को स्वयं के द्वारा किया गया मानता है, और जिसके लिए वह कार्य करता है, उसे उस कार्य का भोक्ता मानलेता है। जिसके कारण उसमें कार्य करने का अहम् आ जाता है और जिसके लिये किया गया उसके प्रति अपेक्षा उत्पन्न हो जाती है, वह बदले में मान, सम्मान या कामना पूरी करे। और यह अहम् और अपेक्षा ही मनुष्य के दुःख, बन्धन, द्वेष और पतन का कारण है।
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