श्रीमद भगवद गीता : अध्याय ५

अध्याय ५ में भगवान श्रीकृष्ण ने योग क्या है, इसके तत्व का वर्णन किया है।

अध्याय ३ और अध्याय ४ में भगवान श्रीकृष्ण ने यज्ञ और योग के लिये कर्तव्य कर्म करने पर बल दिया। परन्तु अर्जुन मूढ़ता वश, कर्मों को स्वरूप से ही त्याग करना चाहता है और उसको संन्यास मानता है और परमात्मा प्राप्ति मानता है।

समाज में अन्य विद्वान् भी परमात्मा प्राप्ति के लिये कार्यों को स्वरूप से त्यागना योग साधना मानते है। जिसका खंडन भगवान श्रीकृष्ण सम्पूर्ण गीता कई बार किया है।

कामना पूर्ति के लिये किये जाने वाले कार्यों को तो स्वरूप से त्याग निश्चित ही करना है। और इसको संन्यास भी कहा जा सकता है। परन्तु इस संन्यास में संसार का त्याग नहीं है। मनुष्य को संसार में रहते हुये समाजिक कर्तव्यों निश्चित रूप से करना चाहिये। और यह ही योग है।  

अतः योग युक्त साधक के क्या गुण होते है और आचरण किस प्रकार का होता है, इसका वर्णन किया है, इस अध्याय में हुआ है।

इस अध्याय में एक विशेष विषय पर भगवान श्रीकृष्ण ने स्पष्टता की है। प्राय साधक लोग सकार रूप की उपसना करने वाले मानते है कि जिस प्रकार मनुष्य सांसारिक कर्यों को करता है, उसी प्रकार परमात्मा भी करते है।  भगवान श्रीकृष्ण इस विचार का खण्डन अध्याय ५ श्लोक १४ और श्लोक १५ में करते है।

अध्याय के अन्त में परमात्मा का चिन्तन करने के लिये ध्यान योग साधना का विषय आरम्भ करते है।

श्लोक ०१ से श्लोक ०६ - संन्यास क्या है; सांख्ययोग और कर्मयोग से एक ही फल की प्राप्ति होती है

।।५-०१।। अर्जुन ने कहा: हे कृष्ण! आप कर्मों के त्याग (संन्यास) की और फिर योग (कर्म के आचरण) की प्रशंसा करते हैं। अतः इन दोनों साधनोंमें जो एक निश्चय पूर्वक श्रेयस्कर हो उसको मेरे लिए कहिये।
।।५-०२।। श्रीभगवान् ने कहा: योग में संन्यास और कर्म (कर्तव्य), ये दोनों ही परम कल्याण कारक हैं; परन्तु उन दोनों में कर्मसंन्यास से कर्मयोग श्रेष्ठ है।
।।५-०३।। हे महाबाहो! जो मनुष्य न किसी से द्वेष करता है और न किसी से आकांक्षा करता है; वह सदा संन्यासी ही समझने योग्य है; क्योंकि, द्वन्द्वों से रहित पुरुष सहज ही बन्धन मुक्त हो जाता है।
।।५-०४।। बालबुद्धि के लोग सांख्य (संन्यास) और योग को परस्पर भिन्न फलवाले समझते हैं, न कि पण्डितजन; क्योंकि इन दोनों में से एक साधन में भी अच्छी तरहसे स्थित मनुष्य दोनों के फलरूप परमात्मा को प्राप्त कर लेता है।
।।५-०५।। सांख्य (ज्ञान) के द्वारा जिस तत्त्व को प्राप्त किया जाता है, योग के द्वारा भी वही प्राप्त किया जाता है। अतः जो मनुष्य सांख्य और योग को फलरूपमें एक देखता है, वही ठीक देखता है।
।।५-०६।। परन्तु हे महाबाहो! कर्मयोगके बिना संन्यास (योग) सिद्ध नहीं है। योग से युक्त, मुनिः (मननशील) शीघ्र ही ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है।

श्लोक ०७ से श्लोक १३ - योग युक्त साधक के गुण और उसके आचरण का वर्णन

।।५-०७।। जिसका अन्तःकरण संयमित एवं निर्मल है, जिसका शरीर अपने वशमें है ऐसा योग युक्त योगी सभी प्राणियों और स्वयं में परमात्मा को अनुभव करता है, और वह कर्म करते हुए भी लिप्त नहीं होता।
।।५-०८-०९।। तत्त्वको जाननेवाला योगी देखता, सुनता, छूता, सूँघता, खाता, चलता, ग्रहण करता, बोलता, मल-मूत्र का त्याग करता, सोता, श्वास लेता तथा आँखें खोलता और मूँदता भी सम्पूर्ण इन्द्रियाँ इन्द्रियों के विषयोंमें विचरण कर रही हैं’ – ऐसा समझकर ‘मैं (स्वयं) कुछ भी नहीं करता हूँ’, – ऐसा मानता है।
।।५-१०।। जो योगी कर्मों में आसक्त नहीं होता और समस्त कर्मों को भगवान् के अर्पण करता है, वह जल में कमल के पत्ते की तरह पाप से लिप्त नहीं होता।
।।५-११ ।। योगी आसक्ति और ममता रहित होकर, इन्द्रियाँ-शरीर-मन-बुद्धि के द्वारा केवल अन्तःकरण की शुद्धि के लिये ही कर्म करते हैं।
।।५-१२।। योगयुक्त कर्मफलका त्याग करके परम शान्तिको प्राप्त होता है। परन्तु सकाम मनुष्य कामनाके कारण फलमें आसक्त होकर बँध जाता है।
।।५-१३।। जो अन्तःकरण से सन्यासी है, ऐसा देहधारी पुरुष नौ द्वारोंवाले शरीररूपी पुर से सम्पूर्ण कार्यों को करता हुआ भी अहंता रूपी बुद्धि से न कार्य को करता है और न करवाता है और वह सुखपूर्वक (अपने स्वरूपमें) स्थित रहता है।

श्लोक १४ से श्लोक १५ - सकार रूप परमात्मा, संसार रूप चक्र का कर्ता है - इसका खण्डन

।।५-१४।। प्रभुः मनुष्यों के न कर्तापन की, न कर्मों की और न कर्मफल के साथ संयोगकी रचना करते हैं; किन्तु स्वभाव ही बरत रहा है।
।।५-१५।। सर्वव्यापी परमात्मा न किसीके पापकर्मको और न शुभकर्मको ही ग्रहण करता है; किन्तु अज्ञानसे ज्ञान ढका हुआ है, उसीसे सब जीव मोहित हो रहे हैं।

श्लोक १६ से श्लोक २० - तत्व ज्ञान से समता (ब्रह्मा) में स्थित होने सम्बन्धी वर्णन

।।५-१६।। परन्तु जिन्होंने वह अज्ञान आत्मज्ञान से नष्ट कर दिया है, उनके लिए वह ज्ञान, सूर्य के सदृश, परमतत्त्व परमात्मा को प्रकाशित कर देता है।
।।५-१७।। जिनकी बुद्धि उस (परमात्मा) में स्थित है, वह परब्रह्म ही जिसकी आत्मा है वे तदात्मा हैं, उसमें ही जिनकी निष्ठा है, वह (ब्रह्म) ही जिनका परम लक्ष्य है, ऐसे परमात्मपरायण संन्यासी ज्ञानके द्वारा पापरहित होकर, अपुनरावृत्तिको (देहसे सम्बन्ध होना छूट जाता है) प्राप्त होते हैं।
।।५-१८।। विद्या-विनययुक्त ब्राह्मण, पण्डित और चाण्डाल में तथा गाय, हाथी एवं कुत्ते में भी समभाव रखते हैं।
।।५-१९।। जिनका अन्तःकरण समत्वभाव में स्थित है, उन्होंने इस जीवित-अवस्थामें ही सम्पूर्ण संसारको जीत लिया है; क्योंकि ब्रह्म निर्दोष और सम है, इसलिये वे ब्रह्ममें ही स्थित हैं।
।।५-२०।। जो प्रियको प्राप्त होकर हर्षित न हो और अप्रियको प्राप्त होकर उद्विग्न न हो, वह स्थिर बुद्धिवाला, मूढ़तारहित तथा ब्रह्मको जाननेवाला मनुष्य ब्रह्ममें स्थित है।

श्लोक २१ से श्लोक २६ - योग युक्त साधक के गुण और आचरण

।।५-२१।। जिसका अन्तःकरण बाह्यस्पर्श (बहारी स्पर्श) की आसक्ति से रहित है, वह समता के सुख को प्राप्त होता है। तथा जब वह योग युक्त और ब्रह्म में स्थित हो जाता है, तब उसको अक्षय सुख का अनुभव होता है।
।।५-२२।। हे कौन्तेय! जो इन्द्रियों और विषयोंके संयोगसे उत्पन्न होनेवाले भोग (सुख) हैं, वे आदि-अन्तवाले और दुःखके ही हेतु हैं। अतः विवेकशील मनुष्य उनमें रमण नहीं करता।
।।५-२३।। इस मनुष्य-शरीरमें जो कोई (मनुष्य) शरीर त्यागने के पूर्व ही काम और क्रोध से उत्पन्न हुए वेग को सहन करने में समर्थ होता है, वह नर योगी है और वही सुखी है।
।।५-२४।। जो मनुष्य केवल अन्तरात्मा में सुखवाला है तथा जो अन्तरात्मा में रमण करनेवाला है और अन्तरात्मा ही जिसकी ज्योति प्रकाश है, वह ब्रह्ममें अपनी स्थितिका अनुभव करनेवाला योगी निर्वाण ब्रह्मको प्राप्त होता है।
।।५-२५।। जिनका अन्तःकरण संयमित है, जो सम्पूर्ण प्राणियों के हित में रत हैं, जिनके सम्पूर्ण संशय मिट गये हैं, जिनके सम्पूर्ण कल्मष (दोष) नष्ट हो गये हैं, वे विवेकी साधक निर्वाण ब्रह्मको प्राप्त होते हैं।
।।५-२६।। काम-क्रोध से सर्वथा मुक्त, समता में स्थित, परमात्मा में लीन संन्यासी के लिये सभी ओर एवं सभी समय केवल निर्वाण ब्रह्म परिपूर्ण है।

श्लोक २७ से श्लोक २९ - मन से केवल परमात्मा का चिन्तन हो उसके लिये ध्यान योग का वर्णन

।।५-२७।। बाह्य पदार्थों को बाहर ही छोड़कर और नेत्रों की दृष्टि को भौंहों सीध में सामने की ओर एक बिन्दु पर केन्द्रित करके तथा नासिका में विचरने वाले प्राण और अपान वायु को सम करना परमात्मा के चिन्तन में सहायक है।
।।५-२८।। जिसकी इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि अपने वशमें हैं, जो मोक्ष-परायण है वह मुनि इच्छा, भय और क्रोधसे सर्वथा मुक्त है।
।।५-२९।। इस प्रकार समाहितचित्त हुए मनुष्य मुझ नारायणको कर्तारूपसे और देवरूपसे समस्त यज्ञों और तपोंका भोक्ता, सर्वलोकमहेश्वर, समस्त प्राणियोंका सुहृद् (स्वार्थरहित दयालु और प्रेमी) और सब संकल्पोंका साक्षी जानकर शान्तिको प्राप्त हो जाता है।

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