श्रीमद भगवद गीता : अध्याय १७

०१ - ०६ ज्ञानरहित आसुरी सम्पति वाले, तीन प्रकार से देवताओं की श्रद्धा/ भक्ति करते है, इसका वर्णन।

।।१७-०१।। अर्जुन ने कहा: हे कृष्ण! जो मनुष्य शास्त्र-विधिका त्याग करके श्रद्धापूर्वक देवता आदिका पूजन करते हैं, उनकी निष्ठा फिर कौन-सी है? सात्त्विक है अथवा राजसी-तामसी?
।। १७-०२।। श्री भगवान् ने कहा: मनुष्यों की वह स्वाभाविक (ज्ञानरहित) श्रद्धा तीन प्रकार की – सात्त्विक, राजसिक और तामसिक – होती हैं, उसे तुम मुझसे सुनो।
।। १७-०३।। हे भारत! सभी मनुष्योंकी श्रद्धा अन्तःकरणके अनुरूप होती है। यह मनुष्य श्रद्धामय है। इसलिये जो जैसी श्रद्धावाला है, वही उसका स्वरूप है अर्थात् वही उसकी निष्ठा स्थिति है।
।। १७-०४।। सात्त्विक मनुष्य देवताओंका पूजन करते हैं, राजस मनुष्य यक्षों और राक्षसोंका और दूसरे जो तामस मनुष्य हैं, वे प्रेतों और भूतगणोंका पूजन करते हैं।
।। १७-०५।। ।। १७-०६।। जो मनुष्य शास्त्र विधान से रहित घोर तप करते हैं; जो दम्भ और अहंकारसे अच्छी तरह युक्त हैं; जो भोग-पदार्थ, आसक्ति और हठसे युक्त हैं; जो शरीरमें स्थित पाँच भूतोंको अर्थात् पाञ्चभौतिक शरीरको तथा अन्तःकरणमें स्थित मुझ परमात्माको भी कृश करनेवाले हैं उन अज्ञानियोंको तू आसुर निश्चयवाले (आसुरी सम्पति वाले) समझ।

०७ - १० सात्विक, राजस, और तामस आहारी की रूचि का वर्णन।

।। १७-०७।। आहार भी सबको तीन प्रकारका प्रिय होता है और वैसे ही यज्ञ, दान और तप भी गुणों के आधार पर तीन प्रकार की रुचि के होती है, उनके भेद को तुम मुझसे सुनो।
।।१७-०८।। आयु, सत्त्वगुण, बल, आरोग्य, सुख और प्रसन्नता प्रवृद्ध करने वाले, स्थिर रहनेवाले, हृदयको शक्ति देनेवाले, रसयुक्त तथा चिकने – ऐसे आहार अर्थात् भोजन करनेके पदार्थ सात्त्विक मनुष्यको प्रिय होते हैं।
।।१७-०९।। अति कड़वे, अति खट्टे, अति नमकीन, अति गरम, अति तीखे, अति रूखे और अति दाहकारक आहार अर्थात् भोजनके पदार्थ राजस मनुष्यको प्रिय होते हैं, जो कि दुःख, शोक और रोगोंको देनेवाले हैं।
।।१७-१०।। जो भोजन अधपका, रसरहित, दुर्गन्धित, बासी और उच्छिष्ट है तथा जो महान् अपवित्र भी है, वह तामस मनुष्य को प्रिय होता है।

११ - १३ गुण के अनुसार यज्ञ करने में तीन प्रकार की वृति का वर्णन।

।।१७-११।। यज्ञ करना कर्तव्य है — इस तरह मनको समाधान करके फलेच्छारहित मनुष्योंद्वारा जो शास्त्रविधिसे नियत यज्ञ किया जाता है, वह सात्त्विक है।
।।१७-१२।। परन्तु हे भरतश्रेष्ठ अर्जुन! जो यज्ञ फलकी इच्छाको लेकर अथवा दम्भ-(दिखावटीपन-) के लिये भी किया जाता है, उसको तुम राजस समझो।
।।१७-१३।। शास्त्र विधि से हीन, अन्न-दानसे रहित, बिना मन्त्रोंके, बिना दक्षिणाके और बिना श्रद्धाके किये जानेवाले यज्ञको तामस यज्ञ कहते हैं।

१४ - १९ तप के प्रकार और गुण के अनुसार तप करने में तीन प्रकार की वृति का वर्णन।

।।१७-१४।। देवता, ब्राह्मण, गुरुजन और जीवन्मुक्त महापुरुषका पूजन करना, शुद्धि रखना, सरलता, ब्रह्मचर्यका पालन करना और हिंसा न करना – यह शरीरसम्बन्धी तप कहा जाता है।
।।१७-१५।। जो वाक्य (भाषण) उद्वेग न उत्पन्न करनेवाला, सत्य, प्रिय, हितकारक भाषण तथा स्वाध्याय और अभ्यास करना – यह वाणी-सम्बन्धी तप कहा जाता है।
।।१७-१६।। मनकी शान्ति, सौम्य एवं मोन भाव, मनका निग्रह और भावोंकी शुद्धि, इस तरह यह मन-सम्बन्धी तप कहे जाते है।
।।१७-१७।। परम श्रद्धासे युक्त फलेच्छारहित मनुष्यों के द्वारा तीन प्रकार-(शरीर, वाणी और मन-) का तप किया जाता है, उसको सात्त्विक कहते हैं।
।।१७-१८।। जो तप स्वयं के सत्कार, मान और पूजाके लिये तथा दिखानेके भावसे किया जाता है, वह इस लोकमें अनिश्चित और नाशवान् फल देनेवाला तप राजस कहा गया है।
।।१७-१९।। जो तप मूढ़ता पूर्वक हठसे अपनेको पीड़ा देकर अथवा दूसरोंको कष्ट देनेके लिये किया जाता है, वह तप तामस कहा गया है।

२० - २२ गुण के अनुसार दान करने में तीन प्रकार की वृति का वर्णन।

।।१७-२०।। “दान देना ही कर्तव्य है” – इस भाव से जो दान योग्य देश, काल को देखकर ऐसे (योग्य) पात्र (व्यक्ति) को दिया जाता है, जिससे प्रत्युपकार की अपेक्षा नहीं होती है, वह दान सात्त्विक माना गया है।
।।१७-२१।। और जो दान क्लेशपूर्वक तथा प्रत्युपकार के उद्देश्य से अथवा फल की कामना रखकर दिया जाता हैं, वह दान राजस माना गया है।
।।१७-२२।। जो दान बिना सत्कार किये, अथवा तिरस्कारपूर्वक, अयोग्य देशकाल में, कुपात्रों के लिए दिया जाता है, वह दान तामस माना गया है।

२३ - २८ ऊँ, तत् सत् की महिमा का वर्णन।

।।१७-२३।। ‘ऊँ, तत् सत्’ ऐसा यह ब्रह्म का त्रिविध निर्देश (नाम) कहा गया है; उसी से सृष्टिके आदिकाल में वेदों, ब्राह्मणों और यज्ञोंकी रचना हुई हैं।
।।१७-२४।। इसलिये वैदिक सिद्धान्तों को मानने वाले मनुष्यों की शास्त्र विधि से नियत यज्ञ, दान और तपरूप क्रियाएँ सदा ‘ऊँ तत् सत्’ के उच्चारण से ही आरम्भ होती हैं।
।।१७-२५।। ‘तत्’ नामसे कहे जानेवाले परमात्माके लिये ही सब कुछ है, ऐसा मानकर मुक्ति चाहनेवाले मनुष्योंद्वारा फलकी इच्छासे रहित होकर अनेक प्रकारकी यज्ञ और तपरूप क्रियाएँ तथा दानरूप क्रियाएँ की जाती हैं।
।।१७-२६।। हे पार्थ! सत्य भाव व साधुभाव में ‘सत्’ शब्द का प्रयोग किया जाता है, और प्रशस्त (श्रेष्ठ, शुभ) कर्म में ‘सत्’ शब्द प्रयुक्त होता है।
।।१७-२७।। यज्ञ, तप और दान में दृढ़ स्थिति भी सत् कही जाती है, और उस (परमात्मा) के निमित्त किया जानेवाला कर्म भी सत् ही कहलाता है।
।।१७-२८।। हे पार्थ! अश्रद्धा से किया हुआ यज्ञ, दिया हुआ दान और तप तथा और भी जो कुछ किया जाय, वह सब ‘असत्’ – ऐसा कहा जाता है। उसका फल न यहाँ होता है, न मरने के बाद ही होता है अर्थात् उसका कहीं भी सत् फल नहीं होता।

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