श्रीमद भगवद गीता : ०२

श्री भगवानुवाच

त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा।

सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां श्रृणु ।। १७-०२।।

 

 

श्री भगवान् ने कहा: मनुष्यों की वह स्वाभाविक (ज्ञानरहित) श्रद्धा तीन प्रकार की – सात्त्विक, राजसिक और तामसिक – होती हैं, उसे तुम मुझसे सुनो। ।। १७-०२।।

 

भावार्थ:

भगवान् श्रीकृष्ण सर्व प्रथम स्पष्ट करते है कि जो मनुष्य देवताओं के आश्रित होता है वह निश्चय ही ज्ञान रहित होता है। कारण की कामना रूपी भाव ही मनुष्य को देवताओं के प्रति आश्रित करता है।

देवताओं के आश्रित मनुष्य अपने गुण (सात्त्विक, राजसिक और तामसिक) और गुण से उत्पन्न भाव के अनुसार, तीन अलग-अलग प्रकार के देवताओं में श्रद्धा रखता है।

अध्याय ७ श्लोक २० में भगवान् श्रीकृष्ण ने वर्णन किया है कि जो मनुष्य कामना और भोग के वश है, वह अपनी प्रकृति के अनुरूप देवताओं के शरण होते है।

 

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