श्रीमद भगवद गीता : ०५-०६

अशास्त्रविहितं घोरं तप्यन्ते ये तपो जनाः।

दम्भाहङ्कारसंयुक्ताः कामरागबलान्विताः ।। १७-०५।।

 कर्षयन्तः शरीरस्थं भूतग्राममचेतसः।

मां चैवान्तःशरीरस्थं तान्विद्ध्यासुरनिश्चयान् ।। १७-०६।।

 

जो मनुष्य शास्त्र विधान से रहित घोर तप करते हैं; जो दम्भ और अहंकारसे अच्छी तरह युक्त हैं; जो भोग-पदार्थ, आसक्ति और हठसे युक्त हैं; जो शरीरमें स्थित पाँच भूतोंको अर्थात् पाञ्चभौतिक शरीरको तथा अन्तःकरणमें स्थित मुझ परमात्माको भी कृश करनेवाले हैं उन अज्ञानियोंको तू आसुर निश्चयवाले (आसुरी सम्पति वाले) समझ। ।। १७-०५।। ।। १७-०६।।

 

भावार्थ:

शास्त्रों में कृत (करने योग्य) एवं अकृत (न करने योग्य) कार्यों का विधान किया गया है। उन कृत कार्यों को करने में शारीरक एवं मानसिक कष्ट होता है, जिसको तप कहा गया है।

परन्तु जो मनुष्य अकृत (कामना, भोग रूपी कार्य) करता है, दम्भ और अहंकार के वश हो कर कार्य करता है, हठसे युक्त हो कर कार्य करता है, और उन सब कार्यों में अपने को शारीरक एवं मानसिक कष्ट देता है। इस प्रकार वह मनुष्य अज्ञान वश परमात्मा से प्राप्त शरीर को कष्ट देता है, जो की स्वयं परमात्मा को कष्ट देने के समान है। वह यह नहीं जानता है, कि परमात्मा से प्राप्त शरीर उसका स्वयं का नहीं है और उसको यह शरीर भोग भोगने के लिये नहीं प्राप्त हुआ है। उसको यह शरीर संसार का कल्याण करने के लिये प्राप्त हुआ है।

अतः यह समझ लेना कि केवल तप करना दैविक कार्य है, यह अज्ञानता है। शास्त्रों में जिन कार्यों का विधान किया गया है, उससे रहित, किसी भी प्रकार का पूजन अथवा तप, निश्चय ही आसुरी प्रकृति वाला कार्य है। नीच कार्य है।

 

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