श्रीमद भगवद गीता : १२

अभिसंधाय तु फलं दम्भार्थमपि चैव यत्।

इज्यते भरतश्रेष्ठ तं यज्ञं विद्धि राजसम् ।। १७-१२।।

 

 

परन्तु हे भरतश्रेष्ठ अर्जुन! जो यज्ञ फलकी इच्छाको लेकर अथवा दम्भ-(दिखावटीपन-) के लिये भी किया जाता है, उसको तुम राजस समझो। ।।१७-१२।।

 

भावार्थ:

जो कार्य स्वयं (कामना पूर्ति) के लिये किये जाते है, अथवा जो कर्तव्य स्वयं के मान-सम्मान अथवा दम्भ (दिखावटीपन) के लिये किये जाते है, वह राजस कार्य है।

लोग हमें भीतरसे सद्गुणी, सदाचारी, संयमी, तपस्वी, दानी, धर्मात्मा, आदि समझें, जिससे संसार में हमारी प्रसिद्धि हो जाय। ऐसे दिखावटीपने को लेकर जो यज्ञ किया जाता है? वह राजस कहलाता है। यज्ञ में अध्याय १६ श्लोक १५ एवं अध्याय १६ श्लोक १७ में वर्णित सभी विशेषता आ जाती है।

 

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