श्रीमद भगवद गीता : १३

विधिहीनमसृष्टान्नं मन्त्रहीनमदक्षिणम्।

श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते ।। १७-१३।।

 

 

शास्त्रविधिसे हीन, अन्न-दानसे रहित, बिना मन्त्रोंके, बिना दक्षिणाके और बिना श्रद्धाके किये जानेवाले यज्ञको तामस यज्ञ कहते हैं। ।।१७-१३।।

 

भावार्थ:

तामसिक मनुष्य कर्तव्यों का पालन तो करता ही नहीं। जो कार्य करता भी है, वह शास्त्र विधि से रहित होते है। जो दान दिया जाता है, उसमें जीवन की मुलभुत आवश्यकताय नहीं होती। जो वस्तु उसके भोग के लिये नहीं रहती उनको वह दान करता है।

कर्मकाण्ड के अनुष्ठान में मन्त्रों का उच्चारण तथा शिक्षित पुरोहितों को दक्षिणा देना आवश्यक होता है, परन्तु तमोगुणी पुरुष इन सब नियमों की ओर ध्यान ही नहीं देता है।

इस श्लोक में जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं को अन्न शब्द के द्वारा व्यक्त किया गया है।

जैसा अध्याय १६ श्लोक २३ और अध्याय १७ श्लोक २८ में वर्णन किया गया है कि तामसिक कार्यों का फल नाशवान होता है। उससे न तो अन्तःकरण की शुद्धिरूप प्राप्त होती है, न सुख मिलता है और न ही परमात्मा की प्राप्ति होती है।

 

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