श्रीमद भगवद गीता : १४

देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्।

ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते ।। १७-१४।।

 

 

देवता, ब्राह्मण, गुरुजन और जीवन्मुक्त महापुरुषका पूजन करना, शुद्धि रखना, सरलता, ब्रह्मचर्यका पालन करना और हिंसा न करना – यह शरीरसम्बन्धी तप कहा जाता है। ।। १७-१४।।

 

भावार्थ:

यहाँ देव शब्द मुख्यरूपसे प्रकृति-संसार के लिये आया है। पूजन पद सेवा का वाचक है। द्विज पद ब्राह्मण के लिये है, कारण की ब्राह्मण वह है जिसका विवेक जाग्रत हो गया है और वह केवल ब्रहा में ही रमण करता है।

इस श्लोक में ब्राह्मण, गुरुजन और जीवन्मुक्त महापुरुष की सेवा करने के लिये इसलिये कहा गया है कियुकि इन सब का जीवन अन्यों के लिये होता है और वह स्वयं के लिये जीवन निर्वह के लिये भी प्रयत्न नहीं करते। प्रकृति-समाज में जो कोई भी प्राणी कष्ट में उनकी सेवा तो करनी ही चाइये।

शुद्धि पद अन्तः करण की शुद्धि का वाचक है।

सरलता से अभिप्राय है, दम्भ, दर्प, अहंकार, कुटिलता से रहित होना।

इन्द्रियों व मन के संयम को भी ब्रह्मचर्य की संज्ञा प्रदान की गयी है।

इन सब कार्यों को करने में जो शारीरिक अथवा मानसिक कष्ट होता है, इसलिये तप है। यह तप तभी तक है जब तक साधक शरीर, मन, बुद्धि से सम्बन्ध मानता है।

तप में शरीर और मानसिक उत्पीड़न तो है, परन्तु तप वह विवेकपूर्ण योग साधना है, जिसके द्वारा साधक अपनी समस्त शक्तियों के अपव्यय को अवरुद्ध कर उनका संचय करता हैं। इस प्रकार विवेकपूर्ण तप से परमात्मा को प्राप्त होता है।

 

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