भावार्थ:
मनःप्रसादः
मन की शान्ति को मन प्रसाद कहते है। मन की शान्ति में ही मन की प्रसन्नता है। मनुष्य जब इन्द्रियों के विषय एवं संसारिक पदार्थ में आसक्ति रहती है, स्पृहा रहती है, तब उनके संयोग-वियोग से मन में हलचल (अशान्ति) होती है। अतः इन्द्रियों के विषय एवं संसारिक पदार्थ में आसक्ति, ममता, सम्बन्ध का त्याग करना, मन का तप है। ऐसा करने से मन शान्त होता है।
सौम्यत्वम्
प्राणिमात्र के प्रति प्रेम और कल्याण की भावना ही सौम्यता है। अन्य व्यक्ति के अपशब्द कहने पर, तिरस्कार करने पर, बिना कारण दोषारोपण करने पर, अथवा उसके धन, मान, महिमा आदि की हानि होने पर भी जब साधक विचलित नहीं होता, तब वह मन का तप है। सौम्यता का भाव रखने वाले साधक के हृदय में हिंसा, कुटिलता, असहिष्णुता, द्वेष आदि भाव उत्त्पन्न नहीं होते। और ऐसा नहीं होने देना मन का तप है।
मौनम्
मन से सांसारिक विषयों का चिन्तन न होना मन का मौन है, तप है। इस के लिये शास्त्र, भगवत सम्बन्धी ग्रन्थ आदि का अध्यन, एकान्त समय में परमात्मा का मनन, चिन्तन करने से मन मौन होता है।
आत्मविनिग्रहः
मन सयंमित होना मन का निग्रह होना है। इस स्थति में मन साधक के वश में रहता है। अर्थात् मन को जहाँ से हटाना चाहें, वहाँ से हट जाय और जहाँ जितनी देर लगाना चाहें, वहाँ उतनी देर लगा रहे। तात्पर्य यह है कि साधक मन के वशीभूत होकर काम नहीं करे, प्रत्युत मन ही उसके वशीभूत होकर काम करता रहे।
भावसंशुद्धिः
जिस में अपने स्वार्थ और अभिमान का त्याग हो और दूसरों का हित करने का भाव हो, उसे,भावसंशुद्धि अर्थात् भाव की महान् पवित्रता कहते हैं। जिसके भीतर केवल भगवान का आसरा हो, परमात्मा का ही चिन्तन हो और भगवत प्राप्ति का निश्चय हो, वह सरलता से भाव की शुद्धि कर लेता हैं।
इस प्रकार जिस तपमें मन की मुख्यता होती है, वह मानस (मनसम्बन्धी) तप कहलाता है।
धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]
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