भावार्थ:
मनुष्य जब वर्ण आश्रम के अनुसार अपने स्वधर्म का पालन करता है, पुरषार्थ करता है, तब उसको फल स्वरूप प्रकृति से पदार्थ की प्राप्ति होती है। प्रकृति से प्राप्त किया हुआ पदार्थ का वह केवल अभिक्षक (देख-भाल करने वाला) है, अधिकारी नहीं। प्राप्त फल में से अपने जीवन निर्वह मात्र के लिये ग्रहण कर शेष को पुनः समाज के कल्याण के लिये लगा देना चाहिये, – दान कर देना चाहिये। जिसने वस्तुओंको स्वीकार किया है, उसीपर देनेकी जिम्मेवारी होती है। अतः देनामात्र मेरा कर्तव्य है — इस भावसे दान करना चाहिये।
देने मे स्वयं के लिये किसी प्रकार का फल प्राप्ति की कामना नहीं होनी चाहिये। देने वाले पर मैं उपकार करता हूँ, इस प्रकार का अहंकार नहीं होना चाहिये।
दान उनको देना चाहिये जिसने पहले कभी हमारा उपकार किया ही नहीं, अभी भी उपकार नहीं करता है और आगे हमारा उपकार करेगा, ऐसी सम्भावना भी नहीं है। ऐसे अनुपकारी को निष्कामभावसे देना चाहिये।
जिसने उपकार किया है, उसको देना दान नहीं व्यपार है।
दान देने वाली वास्तु उस देश, काल और पात्र को देनी चाहिये, जो उस वास्तु के अभाव में है और उस वास्तु की आवश्यकता है। देश, काल और पात्र का चयन करने में किसी प्रकार की आसक्ति, राग-दुवेश नहीं होना चाहिये।
इस प्रकार दिया हुआ दान सात्त्विक कहा जाता है।
सृष्टिकी जितनी वस्तु हैं, वे समाज के लिये हैं, अपनी व्यक्तिगत नहीं हैं। चाहे उनको प्राप्त करने में व्यक्तिगत पुरषार्थ लगा हो। इसलिये प्राप्त हुई वास्तु को अनुपकारी व्यक्ति को उसकी आवश्यकता समझकर उसको देनी चाहिये।
यह ही मनुष्य का कर्तव्य है।
धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]
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