श्रीमद भगवद गीता : २३

तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः।

ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा ।।१७-२३।।

 

 

‘ऊँ, तत् सत्’ ऐसा यह ब्रह्म का त्रिविध निर्देश (नाम) कहा गया है; उसी से सृष्टिके आदिकाल में वेदों, ब्राह्मणों और यज्ञोंकी रचना हुई हैं। ।।१७-२३।।

 

भावार्थ:

ब्रह्ममांड में सृष्टि चक्र रूपी यज्ञ के लिये जो कार्य रूपी आहुति जो वेदों में आदि काल से ही निर्धारित की गयी है। सृष्टि चक्र रूपी यज्ञ स्वतः ही इन तीन ‘ऊँ, तत् सत्’ शब्दों से निर्देशित होती है।

अतः मनुष्य के दुवारा जो भी कार्य होते है, उन कार्यों के आरम्भ में इन शब्दों का उच्चारण करना चाहिये और और कार्य के अवधि में और उपरांत भी इनका भाव अन्तः करण में तटस्ता से स्थित रखना चाहिये।

यज्ञ क्या है इसका वर्णन अध्याय ३ श्लोक १० में हुआ है। मनुष्य के कार्य जो वेदों में आदि काल से ही निर्धारित किये गये है उसका वर्णन ३ श्लोक १५ में हुआ है।

यज्ञ में सभी कुछ ब्रह्म ही है, इसका वर्णन अध्याय ४ श्लोक २४ में हुआ है।

जिस यज्ञमें अर्पण भी ब्रह्म है, हवी भी ब्रह्म है और ब्रह्मरूप कर्ताके द्वारा ब्रह्मरूप अग्निमें आहुति देनारूप क्रिया भी ब्रह्म है। यज्ञ से प्राप्त फल भी ब्रह्म ही है। इस प्रकार का निर्देशन एवं भाव ‘ऊँ, तत् सत्’ से हुआ है।

 

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