श्रीमद भगवद गीता : २६

सद्भावे साधुभावे च सदित्येतत्प्रयुज्यते।

प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते ।।१७-२६।।

 

 

हे पार्थ! सत्य भाव व साधुभाव में ‘सत्’ शब्द का प्रयोग किया जाता है, और प्रशस्त (श्रेष्ठ, शुभ) कर्म में ‘सत्’ शब्द प्रयुक्त होता है। ।।१७-२६।।

 

भावार्थ:

सत् पद से भाव क्या है, उसका वर्णन इस श्लोक में हुआ है।

दृश्यमान सृष्टि के रूप परमत्मा हैं इस प्रकार परमात्मा की सत्ता (होनेपन) का नाम सद्भाव है। सृष्टि में होने वाली क्रिया भी सद्भाव के अन्तर्गत हैं। मनुष्य के अन्तःकरण में स्थित जितने भी श्रेष्ठ, एवं उत्तम भाव हैं, वे सब के सब साधुभाव के अन्तर्गत हैं। मनुष्य के कर्तव्य रूपी कर्म, श्रेष्ठ आचरण आदि प्रशस्ते कर्मणि के अन्तर्गत हैं।

इस प्रकार सृष्टि, सृष्टि में होने वाली क्रिया, मनुष्य के साधुभाव एवं शुभ और श्रेष्ठ कर्म, के होने परमात्मा कारण है। ऐसा भाव सत्  पद से इंगित होता है।

 

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