श्रीमद भगवद गीता : ०७

तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्।

भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम् ।।१२-७।।

 

 

हे पार्थ! जिनका चित्त मुझमें ही स्थिर हुआ है ऐसे भक्तों का मैं शीघ्र ही मृत्युरूप संसार सागर से उद्धार करने वाला होता हूँ। ।।१२-७।।

 

भावार्थ:

इस प्रकार पूर्व श्लोक में वर्णित उपासना के द्वारा जिस साधक का लक्ष्य, उद्देश्य, ध्येय,भगवान् ही बन गये हैं। और जिसने प्रेम पूर्वक अनन्य भाव से चित्त को भगवान् में ही लगा दिया है। उसके लिये विनाश रूपी संसार (वह संसार जो प्रति क्षण विनाश की ओर जा रहा है) का कोई महत्त्व नहीं रहता। अर्थात वह मृत्यु-संसार-सागर से ऊपर उठ (उद्धार हो) जाता है।

यह योग में स्थित होने की स्थिति है।

संसार का महत्त्व नहीं रहने का अर्थ यह नहीं है की साधक संसार का कोई कार्य नहीं करता। अपितु वह अपने कर्तव्यों को और तत्परता से करता है। संसार का महत्त्व नहीं रहने का अर्थ है कि साधक को स्वयं के लिये कोई कामना, नहीं रहती। ऐसा होने से साधक सुख-दुःख के बन्धन से मुक्त हो जाता है।

संसार का महत्त्व रहने से मनुष्य का संसार के प्रति मोह बना रहता है, जो दलदल के समान है (अध्याय २ श्लोक ५२)। कारण की संसार में आसक्ति रहने से कामना उत्त्पन्न होती जो मनुष्य का सबसे अधिक शक्तिशाली शत्रु है(अध्याय ३ श्लोक ३७)। कामना से ही सारे विकार उत्त्पन्न होते है जो मनुष्य को नष्ट कर देते है (अध्याय २ श्लोक ६२)।

अध्याय ६ श्लोक ५ में भी भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को अपना उद्धार करने को कहते है।

 

PREVIOUS                                                                                                                                          NEXT

धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष

धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]

Read More

अध्याय