भावार्थ:
इस प्रकार पूर्व श्लोक में वर्णित उपासना के द्वारा जिस साधक का लक्ष्य, उद्देश्य, ध्येय,भगवान् ही बन गये हैं। और जिसने प्रेम पूर्वक अनन्य भाव से चित्त को भगवान् में ही लगा दिया है। उसके लिये विनाश रूपी संसार (वह संसार जो प्रति क्षण विनाश की ओर जा रहा है) का कोई महत्त्व नहीं रहता। अर्थात वह मृत्यु-संसार-सागर से ऊपर उठ (उद्धार हो) जाता है।
यह योग में स्थित होने की स्थिति है।
संसार का महत्त्व नहीं रहने का अर्थ यह नहीं है की साधक संसार का कोई कार्य नहीं करता। अपितु वह अपने कर्तव्यों को और तत्परता से करता है। संसार का महत्त्व नहीं रहने का अर्थ है कि साधक को स्वयं के लिये कोई कामना, नहीं रहती। ऐसा होने से साधक सुख-दुःख के बन्धन से मुक्त हो जाता है।
संसार का महत्त्व रहने से मनुष्य का संसार के प्रति मोह बना रहता है, जो दलदल के समान है (अध्याय २ श्लोक ५२)। कारण की संसार में आसक्ति रहने से कामना उत्त्पन्न होती जो मनुष्य का सबसे अधिक शक्तिशाली शत्रु है(अध्याय ३ श्लोक ३७)। कामना से ही सारे विकार उत्त्पन्न होते है जो मनुष्य को नष्ट कर देते है (अध्याय २ श्लोक ६२)।
अध्याय ६ श्लोक ५ में भी भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को अपना उद्धार करने को कहते है।
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