भावार्थ:
भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि योग सिद्धि के लिये, ज्ञान को प्राप्त करना, समता और ध्यान के लिये अभ्यास करना, सभी अनिवार्य है। परन्तु ज्ञान की प्राप्ति होने पर योग की सिद्धि तुरन्त ही हो जाती है। इसलिये ज्ञान निश्चय ही विशेष है।
इस श्लोक में ज्ञान की श्रेष्टता, योग साधना की सिद्धि में लगने वाले समय को लेकर के है, न की साधना के फल को लेकर।
साधक का विवेक जागृत होते ही, परमात्मतत्त्व का ज्ञान होते ही, उसका अन्तःकरण तुरन्त ही शान्त और निर्मल हो जाता है। मन और बुद्धि परमात्मा में स्थिर हो जाती है।
समता योग और ध्यान योग साधना का अभ्यास करने से भी अन्तःकरण शान्त और निर्मल हो जाता है। मन और बुद्धि परमात्मा में स्थिर हो जाती है। परन्तु इस साधना मे ज्ञान प्राप्ति की अपेक्षा अधिक समय लगता है।
भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि अगर तुम परमात्मा प्राप्ति के लिये योग साधना करने मे अभी असमर्थ हो तो तुम केवल कर्म फल का त्याग करो।
कर्म फल के त्याग का अर्थ है, कर्म और उसके फल में आसक्ति का त्याग. कर्म की सिद्धि की कामना का त्याग। कारण की ऐसा करने से भी तुम्हारे मन को शान्ति मिलेगी।
श्लोक के सन्दर्भ मे:
अर्जुन युद्ध के परिणाम में आसक्त था। युद्ध में सम्बन्धियों की होने वाली मृत्यु से व्यथित था। इसलिए भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि तुम युद्ध के परिणाम का विचार त्याग दो और शान्त हो जाओ।
कर्म फल के त्याग से मन को शान्ति मिलती है, परन्तु इससे भगवत प्राप्ति नहीं होती। परन्तु निश्चय ही कर्म फल का त्याग योग साधना में प्रथम पग है।
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