श्रीमद भगवद गीता : १५

यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः।

हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः ।।१२-१५।।

 

 

जिससे कोई लोक (अर्थात् जीव, व्यक्ति) उद्वेग को प्राप्त नहीं होता और जो स्वयं भी किसी व्यक्ति से उद्वेग अनुभव नहीं करता तथा जो हर्ष, अमर्ष (ईर्ष्या) भय और उद्वेगों से मुक्त है, वह भक्त मुझे प्रिय है। ।।१२-१५।।

 

भावार्थ:

जो भक्त स्वयं से ऐसा कोई कार्य नहीं करता जिससे अन्य प्राणीओं को उद्वेग हो। जो भक्त अन्य प्राणीओं के किसी प्रकार की क्रिया से उद्वेग नहीं होता।

उद्वेग‘:  मनका एकरूप न रहकर हलचलयुक्त हो जाना उद्वेग कहलाता है। बार-बार कोशिश करनेपर भी अपना कार्य पूरा न होना, कार्यका इच्छानुसार फल न मिलना, प्राकर्तिक आपदाय; अपनी कामना, मान्यता, सिद्धान्त अथवा साधनमें विघ्न पड़ना आदि। यह बतानेके लिये ही तीसरी बार उद्वेग की बात कही गयी है।

समता से अन्तःकरण शान्त होता है और विषमताओं से उद्वेग होता है। उद्वेग रहने से मन को संयमित नहीं किया जा सकता।

‘हर्ष’: प्रिय वस्तु अथवा अनुकूल परिस्थिति प्राप्त होने पर अन्तःकरण में जो उत्साह होता है। रोमाञ्च और अश्रुपात आदि जिसके चिह्न हैं उसका नाम हर्ष है।

‘अमर्ष’:  किसीके उत्कर्ष-(उन्नति-) को सहन न करना ‘अमर्ष’ कहलाता है। दूसरे लोगोंको अपने समान या अपनेसे अधिक सुख-सुविधा, धन, विद्या, महिमा, आदर-सत्कार आदि प्राप्त हुआ देखकर साधारण मनुष्यके अन्तःकरणमें उनके प्रति ईर्ष्या होने लगती है; क्योंकि उसको दूसरोंका उत्कर्ष सहन नहीं होता।

कामना-राग-दुवेश के रहित होने से हर्ष-अमर्ष से मुक्ति है। कामना-ममता से रहित होने से भय से मुक्ति है। विषमताओं से रहित होने से उद्वेग से मुक्ति है।

इस प्रकार हर्ष, अमर्ष, भय और उद्वेग से मुक्त योग स्थित भक्त परमात्मा को प्रिय है।

 

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