श्रीमद भगवद गीता : १६

अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः।

सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः ।।१२-१६।।

 

 

जो अपेक्षारहित, शुद्ध, दक्ष, उदासीन, व्यथासे रहित और सभी आरम्भोंका अर्थात् नये-नये कर्मोंके आरम्भका सर्वथा त्यागी है, वह मुझे प्रिय है। ।।१२-१६।।

 

भावार्थ:

अनपेक्षः‘ मनुष्य समाज में रह कर अन्यों से सम्बन्ध मानता है और अन्यों से उसको सुख प्राप्त हो ऐसी अपेक्षा रखता है। मनुष्य देवी-देवताओं की पूजा कुछ प्राप्त करने की अपेक्षा हेतु करता है।

योग स्थित भक्त अपेक्षा रहित होता है। कारण कि उसमें संसार की किसी भी वस्तु में किञ्चिन्मात्र भी आसक्ति, कामना नहीं होती। अपने कहलाने वाले शरीर, इन्द्रियों, मन, बुद्धि में भी उसका अपनापन नहीं रहता, प्रत्युत वह उनको भी भगवान का ही मानता है। अतः उसको शरीर-निर्वाह की भी चिन्ता नहीं होती।

शुचिः‘ – जिसका अन्तःकरण राग-द्वेष, हर्ष-शोक, काम-क्रोध आदि विकारों से रहित है उसका चित शुद्ध है।

दक्षः‘ – जिसमें कार्यों को तत्परता से, कुशल पूर्वक करने का समर्थ होता है वह दक्ष है। दक्ष भक्त मन से सजग और बुद्धि से समर्थ होता है। उसमें मन की शक्ति का अपव्यय नहीं होता अत एक बार किसी कार्य का उत्तरदायित्व अपने कन्धों पर लेने के पश्चात् वह उस कार्य का सिद्धि के लिए सदा तत्पर रहता है।

यहा समता प्राप्ति रूपी कार्य जो जीवन का उदेश्य है, उसको कुशलता पूर्वक करना भी साधक की दक्षता है। 

उदासीनः‘ – योग स्थित भक्त प्राप्त कर्तव्यों को दक्षता से और उत्साह पूर्वक करता है परन्तु उसकी कर्तव्य की सिद्धि-असिद्धि के प्रति उदासीनता होती है। कर्तव्यों को करते हुए जो प्रतिकूल परिस्थिति उत्त्पन्न होती है जो शारीरिक कष्ट होता है उसके प्रति उदासीन रहना।

व्यथा:‘ – प्रतिकूल वस्तु एवं परिस्थिति के प्राप्त होने में दुःख-चिन्ता-शोकरूप हलचल का होना व्यथा है।

भोग और संग्रह के उद्देश्य से नये-नये कर्म करने को ‘आरम्भ’ कहते हैं; जैसे सुख भोग के उद्देश्य से घर में नयी-नयी वस्तु एकत्रित करना, नया व्यापार शुरू करना, धन अर्जित करना आदि।

स्वधर्म का पालन करते हुऐ, कर्तव्यों का पालन करते हुये प्रतिदिन नय- नय कार्यों को करना कर्मो का आरम्भ नहीं है। इस प्रकार के कार्य अवश्य करने चाहिये।

कार्यों का आरम्भ करते हुये – मैं करता हूँ, इस प्रकार का अहंता का भाव नहीं होना चाहिये। तब वह कर्मो का आरम्भ है। तब यह भाव होना चाहिये कि परमात्मा से प्राप्त शरीर द्वारा परमात्मा के लिये कार्य परमात्मा के प्रेणा से हो रहा है।

 

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