श्रीमद भगवद गीता : १८

समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः।

शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्गविवर्जितः ।।१२-१८।।

 

 

जो शत्रु और मित्र में तथा मान और अपमान में सम है; जो शीत-उष्ण व सुख-दु:खादिक में समभाव वाला है और आसक्ति रहित है। ।।१२-१८।।

 

भावार्थ:

इस श्लोक में और अगले श्लोक में योग स्थित भक्त के जितने भी गुण बताये है वह सब व्यवहार काल के है। इस से यह स्पष्ट होता है की योग की सिद्धि संसार में रहते हुये, समाज के सेवा करते हुये ही प्राप्त होती है। किसी कर्म सन्यास से नहीं।

 

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