श्रीमद भगवद गीता : ०१

अर्जुन उवाच

 एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते।

येचाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः ।।१२-१।।

 

 

अर्जुन ने कहा: जो भक्त इस प्रकार निरन्तर आपमें लगे रहकर आप-(सगुण भगवान्-) की उपासना करते हैं और जो अविनाशी निराकारकी ही उपासना करते हैं, उनमें से उत्तम योगवेत्ता कौन हैं? ।।१२-१।।

 

भावार्थ:

योगवित्तमाः” का अर्थ है, योग में निपुणता।

अध्याय ११ श्लोक ५५ में भगवान श्रीकृष्ण ने भक्त के क्या लक्षण होते है इसका वर्णन किया है। साथ ही कहते है कि इन लक्षणों से युक्त भक्त परमात्मा को प्राप्त होता है। वह लक्षण इस प्रकार है।

मत्कर्मकृत्‘ – जिसका कार्यों से कोई सम्बन्ध नहीं होता। जो स्वयं के लिये कोई कार्य नहीं करता। जो साधक वर्ण, आश्रम, देश, काल, परिस्थिति आदि के अनुसार प्राप्त कर्त्तव्यों को केवल प्रकृत्ति, समाज कल्याण के लिये ही करता है। अर्थात परमात्मा के लिये ही कार्य करता है।

मत्परमः‘ – कर्तव्यों को करने के लिये जो साधन सामग्री है, उपकरण है, कर्ता रूप शरीर है, वह सब परमात्मा से ही प्राप्त है। इस प्रकार ममता, अहंता का त्याग कर कार्य को करना परमात्मा के परायण होना है।

‘मद्भक्तः’ – जिस के अन्तःकरण में केवल समता (परमात्मा) प्राप्ति की कामना रहती है, वह भक्ति युक्त है।

सङ्गवर्जितः‘ – जो आसक्ति रहित है। जिसका संसार से अपने लिये कोई सम्बन्ध नहीं है।

‘निर्वैरः सर्वभूतेषु‘ – जो समस्त प्राणियों में केवल परमात्मा को देखता है। किसी से वैर नहीं करता।

और इन लक्षणों से युक्त भक्त को योग युक्त कहा जाता है।

परन्तु अर्जुन इस भक्ति को दो रूप में देखते है। एक वह साधक जो परमात्मा को सकार रूप में देखते है और सकार रूप परमात्मा के लिये भक्ति करते है। दूसरा वह साधक है जो अविनाशी, अव्यक्त परमात्मतत्व की भक्ति करते है।

अतः अर्जुन प्रश्न करते है कि परमात्मा के किस रूप की भक्ति करने से साधक योग में निपूर्ण होता है।

भक्ति का अर्थ है, अपने अस्तित्व से अधिक महत्ता परमात्मा को देना। अपने लिये कुछ न करना। सभी कार्य परमात्मा के लिये करना। कार्य का कारण स्वयं को न मान कर परमात्मा को मानना।

भक्ति का अर्थ केवल जप, कीर्तन, आराधना करना नहीं है।

 

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