भावार्थ:
अगर तुम योग में स्थित होने के लिये कार्य करने में स्वयं को असमर्थ अनुभव करते हो। अगर तुम स्वयं को परमात्मा के आश्रित करने में असमर्थ अनुभव करते हो, तो तुम केवल कर्म फल का त्याग करो। अर्थात तुम कर्मों को करने पर अनुकूल फल की कामना मत करो और फल की सिद्धि-असिद्धि की कामना मत करो।
ऐसा करने से तुम्हारे अन्तःकरण में समता स्थित होने में सहायता मिलेगी।
भगवान श्रीकृष्ण अध्याय १२ श्लोक २ से श्लोक ८ तक में उपासना किस प्रकार की जाती है, सर्वश्रेष्ठ योगी के क्या आचरण होते है और मन-बुद्धि को स्थिर करने से क्या प्राप्त होता है, इसका विस्तार से वर्णन करते है।
इन सब में अर्जुन में असमर्थ का भाव देखते हुए भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को केवल दो कार्य करने को कहते है। पूर्व (अध्याय १२ श्लोक १०) श्लोक में सभी कार्य परमात्मा के लिये करने को कहते है। और इस श्लोक में कर्म फल का त्याग करने को कहते है।
ऐसा करने से क्या होगा, इसका वर्णन अगले श्लोक में करते है।
धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]
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