श्रीमद भगवद गीता : १३

अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च।

निर्ममो निरहङ्कारः समदुःखसुखः क्षमी ।।१२-१३।।

 

 

सब प्राणियों में द्वेषभाव से रहित, सबका मित्र (प्रेमी) करुणा युक्त, ममतारहित, अहंकाररहित, सुखदुःखकी प्राप्ति में सम, और क्षमावान् है। ।।१२-१३।।

 

भावार्थ:

इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण पूर्व श्लोक में कर्म फल का त्याग करने को कहे कर अपनी बात को विराम देते है।

इस श्लोक से पुनः योग स्थित साधक, भक्त के आचरण किस प्रकार के होते है, उसका वर्णन करते है।

इस श्लोक में योग में स्थित साधक के जिन गुणों का वर्णन हुआ है, वह उसके व्यवहार काल के है, न की कर्म सन्यास के।

‘अद्वेष्टा सर्वभूतानाम्’– योग में स्थित साधक सभी प्राणियों के प्रति द्वेष भाव से रहित होता है।

मनुष्य का अन्य के प्रति द्वेष भाव तब होता है जब मनुष्य के साथ कोई अन्य कुछ अनिष्ट करता है या करने की सम्भावना होती है। मनुष्य को अन्यों के प्रति द्वेष भाव इन कारणों से उत्त्पन्न होता है।

१. मान-बड़ाई, आदर-सत्कार का न होना

२. प्रकृति पदार्थ की प्राप्ति में बाधा का होना

३. प्राप्त प्रकृति पदार्थ से वियोग होना

४. शारीरिक क्षति का होना

इस प्रकार अन्य प्राणी या तो अनिष्ट स्वयं करता है या अनिष्ट होने में कारण होता है।

योग में स्थित साधक अनिष्ट होने पर भी अन्य प्राणी के प्रति द्वेष भाव नहीं रखता। इसके दो कारण है।

  1. साधक का कुछ अनिष्ट नहीं होता। कारण की जिन पदार्थों के आभाव से अनिष्ट का भाव उत्त्पन्न होता है, वह उन पदार्थों को अपना मानता ही नहीं।
  2. वह सभी प्राणियों में केवल परमात्मा को देखता है। इसलिये अनिष्ट करने वाले कर्त्ता नहीं मानता।

इसलिये अन्य प्राणी द्वारा तथाकथित अनिष्ट होने पर भी साधक द्वेष भाव नहीं रखता। अपितु क्षमा का भाव रखता है, मैत्री का भाव रखता है। अनिष्ट होने पर साधक न तो स्वयं दण्ड देता है न ही दण्ड मिलने की कामना करता है।

इस प्रकार योग में स्थित साधक सभी प्राणियों के प्रति मैत्री का भाव रखता है। मैत्री पूर्ण व्यवहार वह है जिसमें मनुष्य अन्य को सुख पहुंचाने के लिये कार्य करता है। अन्य प्राणियों का कल्याण हो, ऐसा भाव रखता है और उसके लिये कार्य करता है।

सांसारिक मनुष्य मैत्री भाव में एक दूसरे से सुख की अपेक्षा, अकांशा करते है। परन्तु योग स्थित साधक में स्वयं के लिये किसी प्रकार की अकांशा नहीं होती।

करुणा’ – स्वयं को दुःख प्राप्त होने पर जिस प्रकार मनुष्य उस दुःख के निवारण हेतु कार्य करता है उसी तत्परता से अन्य प्राणी को दुःख होने पर कार्य करना करुणा करना है।

योग स्थित साधक अन्य प्राणी के दुःख को देख कर, उसके निवारण हेतु तत्परता से कार्य करता है।

करुणा’ – स्वयं को दुःख प्राप्त होने पर जिस प्रकार मनुष्य उस दुःख के निवारण हेतु कार्य करता है उसी तत्परता से अन्य प्राणी को दुःख होने पर कार्य करना करुणा करना है।

योग स्थित साधक अन्य प्राणी के दुःख को देख कर, उसके निवारण हेतु तत्परता से कार्य करता है।

ममतारहित’ –

सांसारिक मनुष्य जिन प्राणियों को अपना मानता है, जिनमे ममता रखता है, उनको दुःख होने पर वह भी करुणा युक्त हो कर दुःख के निवारण हेतु तत्परता से कार्य करता है। परन्तु यहां करुणा का कारण ममता है, सम्बन्ध है। योग स्थित साधक का करुणा भाव ममता रहित होता है। वह सभी प्राणियों में सम दृष्टि रखता है और सभी के दुःख निवारण हेतु तत्परता से कार्य करता है।

‘अहंकार रहित’

योग स्थित साधक जब कोई भी कार्य करता है, तब उसकी बुद्धि में यह भाव नहीं होता कि कार्य को “मैं करता हूँ”। उसका विवेक जाग्रत होता है कि सभी कार्यों का कारण परमात्मतत्व है, वह स्वयं नहीं। जिसकी सहायता हुई वह  परमात्मा सवरूप है और यह शरीर- मन- बुद्धि में हो रहे कार्यों का कारण भी परमात्मतत्व है।

‘सुख-दुःख’ –

योग स्थित साधक सुख-दुःख में समभाव रहता है। वह जानता है कि प्राप्त होने वाले सुख-दुःख अनित्य है।

 

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