श्रीमद भगवद गीता : १४

सन्तुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः।

मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः ।।१२-१४।।

 

जो संयतात्मा, दृढ़निश्चयी योगी सदा सन्तुष्ट है, जो अपने मन और बुद्धि को मुझमें अर्पण किये हुए है, जो ऐसा मेरा भक्त है, वह मुझे प्रिय है। ।।१२-१४।।

 

भावार्थ:

कामना का त्याग और समता प्राप्ति के लिये जिस व्यवसायात्मिका बुद्धि का वर्णन अध्याय २ श्लोक ४१ में हुआ है, उसी के लिये इस श्लोक में दृढनिश्चयः पद आया है।

योग स्थित साधक (योगी) दृढ निश्चय द्वारा अपने अन्तःकरण को निरन्तर स्थिर रखता है। इसलिये वह हर परिस्थिति, काल में सन्तुष्टः रहता है। अनुकूल परिस्थिति हो या प्रतिकूल, पदार्थ से सयोग हो या वियोग, सुख हो या दुःख, योगी पूर्ण रूप से सन्तुष्ट रहता है।

जिस मन और बुद्धि को स्थिर करने के लिये भगवान श्रीकृष्ण अध्याय १२ श्लोक ८ में कहते है। योग स्थित साधक दृढ निश्चय द्वारा मन और बुद्धि को स्थिर रखता है और परमात्मा को समर्पित रहता है। परमात्मा को समर्पित होने का अर्थ है कि योगी संसार के आश्रय से रहित होता है, परन्तु संसार में रहते हुए उसके सभी कार्य संसार और समाज कल्याण के लिये होते है। वह अपने मनुष्य धर्म का पालन निरन्तर करता है।

पूर्व श्लोक और इस श्लोक में योग स्थित साधक के गुणों का वर्णन हुआ है। भगवान श्रीकृष्ण ऐसे योगी को अपना भक्त कहते है और अपना प्रिय मानते है।

भगवान श्रीकृष्ण ऐसे योगी को प्रिय मानते है क्योकि उसके सभी कार्य अन्यों के कल्याण के लिये होते है। प्रकृति एवं पर्यावरण को वह दूषित नहीं करता। किसी का अहित नहीं करता।

 

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