श्रीमद भगवद गीता : १९

तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येनकेनचित्।

अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्ितमान्मे प्रियो नरः ।।१२-१९।।

 

 

जो निन्दा-स्तुतिको समान समझनेवाला, मननशील, जिस-किसी प्रकारसे भी (शरीरका निर्वाह होनेमें) संतुष्ट, रहनेके स्थान तथा शरीरमें ममता-आसक्तिसे रहित और स्थिर बुद्धिवाला है, वह भक्तिमान् मनुष्य मुझे प्रिय है। ।।१२-१९।।

 

भावार्थ:

 

इस श्लोक में और अगले श्लोक में योग स्थित भक्त के जितने भी गुण बताये है वह सब अन्य मनुष्य के साथ व्यवहार काल के है। इस से यह स्पष्ट होता है की योग सिद्धि संसार में रहते हुये, समाज के सेवा करते हुये ही प्राप्त होती है। किसी कर्म सन्यास से नहीं।

 

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