भावार्थ:
सर्वश्रेष्ठ योगी के अन्तः-करण में इन्द्रियों के विषयों के प्रति कोई आकर्षण नहीं होता। अर्थात उनकी इन्द्रियाँ नियमित होती है और इन्द्रियों के विषयों का कोई चिन्तन नहीं होता।
ब्रह्मा के गुणों का वर्णन इस प्रकार हुआ है।
जो देश, काल, वास्तु और प्राणीओं में परिपूर्ण (सर्वव्यापी) है। जिसको भाषा, वाणी के द्वारा निर्देशित (संकेत से) नहीं किया जा सकता। परमात्मतत्व, जिसका मन-बुद्धि से चिन्तन नहीं किया जा सकता। जो सदा निर्विकार, एवं एकरस रहने वाला है। जिस में किसी प्रकार की हल-चल नहीं है। जिसका कभी विनाश नहीं होता। परमात्मतत्व, जिसको इन्द्रियों के द्वारा जाना नहीं जा सकता। परन्तु जिसकी सत्ता निश्चित और नित्य है।
सर्वश्रेष्ठ योगी पर-ब्रह्मा की उपासना करता है, और किस प्रकार करता है, उसका वर्णन इस प्रकार हुआ है।
सर्वश्रेष्ठ योगी का उद्देश्य प्राणिमात्र की सेवा करना ही होता है और वह अपने शरीर को अन्य प्राणियों की सेवा में लगाता है। सर्वश्रेष्ठ योगी संसारिक पदार्थों को अपनी और अपने लिये न मान कर, उनको सम्पूर्ण प्राणियों की मानकर उन्हीं की सेवा में लगा देता है। कारण कि पदार्थोंको व्यक्तिगत (अपना) माननेसे ही मनुष्य में परिच्छिन्नता (एकदेशीयता) तथा विषमता रहती है और पदार्थों को व्यक्तिगत न मानकर सम्पूर्ण प्राणियोंके हितका भाव रखने से परिच्छिन्नता तथा विषमता मिट जाती है।
सर्वश्रेष्ठ योगी निर्गुण-निराकार ब्रह्म को सम्पूर्ण प्राणी-पदार्थों में परिपूर्ण देखता (अनुभव) है और उपासना हेतु स्वयं (शरीर) और पदार्थों को सम्पूर्ण प्राणी समुदाय की सेवा में लगा देता है।
ऐसा करने से सर्वश्रेष्ठ योगी परमात्मतत्व (परमानन्द) को प्राप्त होता है।
इन दो श्लोक से स्पष्ट होता है कि साधक को अव्यक्त की उपासना करने से ही परमात्मा की प्राप्ति होती है।
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