श्रीमद भगवद गीता : ०६

ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्पराः।

अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते ।।१२-६।।

 

परन्तु जो कर्मों को मेरे अर्पण करके और मेरे परायण होकर अनन्ययोग से मेरा ही ध्यान करते हुए मेरी उपासना करते हैं। ।।१२-६।।

 

भावार्थ:

सकार रूप या अव्यक्त परमात्मा की उपासना किस प्रकार हो, इसका वर्णन भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक में करते है।

  1. साधक का परम् लक्ष्य केवल परमात्मा (समता) प्राप्ति का होना चाहिये।
  2. उसके चिन्तन में केवल परमात्मा रहने चाहिये।
  3. साधक का संसार के विषयों में राग-द्वेष का त्याग होना चाहिये। कार्यों में सम्बन्ध का त्याग होना चाहिये।
  4. ऐसे योग युक्त साधक के मन, वाणी, और शरीर से होने वाले सभी कार्य परमात्मा को समर्पित होने चाहिये। परमात्मा को समर्पित होने का अर्थ है, समाज के लिये होने चाहिये, न की स्वयं की कामना पूर्ति के लिये।
  5. साधक के सभी कार्यों का कारण परमात्मा है, ऐसा निश्चित भाव होना चाहिये।

 

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